गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

७.७ दुर्जन से बचना

हस्ती हस्तसहस्त्रेण शतहस्तेन वाजिनः।
शृङ्गिणां दशहस्तेन देशत्यागेन दुर्जनः।।७.७।।

  1. हजार हाथ की दूरी से हाथी से ,
  2. सौ हाथ की दूरी से घोड़ा से ,
  3. दस हाथ की दूरी से सिंगवाले जानवरों से 
बचना चाहिये।

और दुर्जन से देश त्याग कर बचना चाहिये।

 

रविवार, 27 मार्च 2016

१७.२२ अनर्थ का कारण

यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकिता।
एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ।।१७.२२।।

जवानी , धन की अधिकता , प्रभुता एवं अविवेक।  इनमे से एक भी अनर्थ का कारण होता है।  लेकिन जिनमे ये चारों हो उनका क्या कहना।

१७.२१ एक भी उज्ज्वलगुण

व्यालाश्रयाऽपि  विफलाऽपि सकण्टकाऽपि वक्राऽपि पङ्कसहिताऽपि दुरासदाऽपि।
गन्धेन बन्धुरसि केतकि सर्वजन्तो रेको गुणः खलु निहन्ति समस्तदोषान्।।१७.२१।।

कवि अन्योक्ति के रूप में केतकी (केवड़ा ) से कहता है - केतकी ! यद्यपि तू साँपों का घर है , तेरे में काँटे भी बहुत होते हैं , तू टेढ़ी - मेढ़ी भी है , तेरे में कीचड़ भी होता है और तू मिलती भी मुश्किल से है फिर भी तेरे में सुगन्ध है ,उसी सुगन्ध की बदौलत तू सबको प्रिय है।

कहने का तात्पर्य यह है कि , मनुष्य में चाहे कितने ही अवगुण हों पर यदि एक भी उज्ज्वलगुण उसके पास रहता है तो उसके सब दोष छूमन्तर हो जाते हैं।
 

१७.२० वृद्धा और यौवन

अधः पश्यसि किं वृद्धे पतितं तव किं भुवि।।
रे रे मुर्ख ! न जानासि गतं तारुण्यमौक्तिकम्।।१७.२०।। 

हे वृद्धे ! तुम नीचे क्या देखती हो ? क्या पृथ्वी पर तुम्हारी कोई वस्तु गिर पड़ी है ? वृद्धा उत्तर देती है - मेरा यौवनरूपी मोती खो गया है , इसलिए मैं कमर झुका कर उसे ही देख रही हूँ।


१७.१९ ये आठ प्राणी दूसरे के दुःख नहीं समझते

राजा वेश्या यमश्चाऽग्निश्चौरो बालक - याचकौ।
परदुःखं न जानन्ति अष्टमो ग्रामकण्टकः।।१७.१९।।

राजा , वेश्या , यम , अग्नि , चोर , बालक , भिखारी और ग्रामकण्टक यानी गाँववालों को दुःख देनेवाला , ये आठ प्राणी दूसरे के दुःख नहीं समझते।

 

१७.१८ मदान्ध राजा और गुणी

दानार्थिनो मधुकरा यदि कर्णतालैर्दुरीकृताः करिवरेण मदान्धबुद्धया। 
तस्यैव गण्डयुगमण्डनहानिरेषा भृङ्गाः पुनर्विकचपद्मवमे वसन्ति।।१८।।

यदि मदके मोह से पहूँचे हुए भौरों को गजराज ने अपने कानों की फड़फड़ाहट से भगा दिया तो इसमें उसीके गण्डस्थलों की शोभा नष्ट हुई। भौंरे तो वहाँ से जाकर फूले हुए कमलों के बीच में निवास करेंगे।  इसी प्रकार यदि कोई मदान्ध राजा किसी गुणी का आदर न करके उसे अपने यहाँ से निकाल देता है तो उससे उस राजा की ही हानि होती है , गुणी तो कहीं - न  - कहीं पहुँच कर अपना अड्डा जमा ही लेगा।

 

१७.१७ मनुष्य और पशु

आहार -निद्रा - भय  - मैथुनानि समानि चैतानि नृणां पशूनाम्।
ज्ञानं नराणामधिको विशेषो ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः।।१७।।

भोजन , शयन , भय और स्त्री - प्रसंग , ये बातें तो मनुष्य और पशु में समान भाव से विद्यमान रहती हैं।  मनुष्यों में केवल ज्ञान की विशेषता रहती है , वह विशेषता भी जिसमें नहीं है , उसे पशु ही समझना चाहिये।

१७.१६स्वर्ग से अधिक सुख

यदि रामा यदि च रमा यदि तनयो विनयगुणोपेतः।
तनये तनयोत्पत्तिः सुखमिन्द्रे किमाधिक्यम्।।१६।।

यदि घर में सुन्दर स्त्री है , यदि मन माफिक धन (लक्ष्मी ) मौजूद है , यदि विनय और बुद्धि से युक्त्त पुत्र घर में है और यदि पुत्र के भी पुत्र है, तो फिर स्वर्ग में इससे अधिक सुख कौन सा होगा ? 

१७.१५ परोपकार की भावना

परोपकरणं येषां जागर्ति हृदये सताम्।
नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदस्तु पदे पदे।।१७.१५।।

जिन लोगों के हृदय में परोपकार की भावना विद्यमान रहती है उनकी सब विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं और पद - पद पर सम्पत्तियाँ मिलती रहती हैं।

१७.१४ तुण्डी (कुन्दरू ), बचा , स्त्री और दूध

सद्यः प्रज्ञा हरेत्तुण्डी सद्यः प्रज्ञाकरी वचा।
सद्यः शक्त्तिहरा नारी सद्यः शक्त्तिकरः पयः।।१७.१४।।

 तुण्डी (कुन्दरू ) तुरन्त बुद्धि हर लेती है , बचा तुरन्त बुद्धि प्रदान करती है।  स्त्री तुरन्त शक्त्ति हर लेती है और दूध तुरन्त बल प्रदान करता है। 

१७.१३ शोभा नष्ट होना

नापितस्य गृहे क्षौरं पाषाणे गन्धलेपनम्।
आत्मरूपं जले पश्येत् शक्रस्यापि श्रियं हरेत्।।१७.१३।।

जो मनुष्य नाइ के घर हजामत बनवाता , स्वयं पत्थर पर चन्दन घिस कर लगाता और जल में अपनी छाया देखता है , वह यदि इन्द्र भी हो तो उसकी श्री नष्ट हो जाती है। 

१७.१२ मोक्ष और ज्ञान

दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन।
मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मण्डनेन।।१७.१२।।

हाथों की शोभा होती है दान से न कि कंकणों से।  स्नान से शरीर की शुद्धि होती है न कि चन्दनलेप से।  सज्जनों की तृप्ति सम्मान से , न कि भोजन से। मोक्ष ( मुक्त्ति ) ज्ञान से होता है न कि अच्छे वेश - भूषा और श्रृंगार से। 

१७.११ बचा हुआ जल

पादशेषं पीतशेषं सन्ध्याशेषं तथैव च।
श्वानमूत्रसमं तोयं पीत्वा चान्द्रायणं चरेत्।।१७.११।।

पैर धोने के बाद बचा हुआ जल , पीने के बाद बचा हुआ जल और सन्ध्या करने के बाद बचा हुआ जल कुत्ते के मूत्र के समान होता है।  भ्रमवश भी वह जल पी लें तो चान्द्रायण व्रत करना चाहिए।

१७.१० स्वामी के चरणोदक

न दानात् शुद्ध्यते नारी नोपवासशतैरपि।
न तीर्थसेवया तद्वद् भर्तुः पादोदकैर्यथा।।१७.१०।।

स्त्री न दान से , न सैकड़ो तरह के व्रत करने से और न तीर्थाटन करने से ही उतनी पवित्र होती है , कि जितनी स्वामी के चरणोदक से पुनीत हो जाती है।

१७.९ पति की आज्ञा के बिना व्रत

पत्युराज्ञां विना नारी उपोष्य व्रतचारिणी।
आयुष्यं हरते भुर्तः सा नारी नकरं व्रजेत्।।१७.९।।

जो स्त्री पति की आज्ञा के बिना व्रत या उपवास करती है तो वह अपने पति की आयु हरती है और अन्त में नरकगामिनी होती है।

१७.८ दुष्ट मनुष्य के सारे शरीर में विष

तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकायाः विषं मुखे।
वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वाङ्गे दुर्जने विषम्।।१७.८।।

साँप के दाँत में विष रहता है , मक्खी के मुख में और बिच्छू के पूँछ में विष रहता है और दुष्ट मनुष्य के सारे शरीर में विष रहता है।

१७.७ अन्न और जल , द्वादशी , गायत्री और माता

नाऽन्नोदकसमं दानं न तिथिर्द्वादशी समा।
न गायत्र्याः परो मन्त्रः न मातुर्दैवतं परम्।।१७.७।।

अन्न और जल के समान कोई दान नहीं होता , द्वादशी की तरह कोई तिथि नहीं होती , गायत्री से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं होता और माता से बढ़कर कोई देवता नहीं होता।  

१७.६ अशक्त्त , ब्रह्मचारी , रोगी और बूढ़ी स्त्री

अशक्तस्तु भवत्साधुर्ब्रह्मचारी च निर्धनः।
व्याधिष्ठो देवभक्तश्च वृद्धा नारी पतिव्रता।।१७.६।।

अशक्त्त साधु होता है , ब्रह्मचारी निर्धन होता है , रोगी देवता का भक्त्त होता है और बूढ़ी स्त्री पतिव्रता हुआ करती है।

१७.५ बिना दिये कुछ किसी को मिलता नहीं

पिता रत्नाकरो यस्य लक्ष्मीर्यस्य सहोदरी।
शङ्खो भिक्षाटनं कुर्यान्नादत्तमुपतिष्ठते ।।१७.५।।

जिसका बाप रत्नाकर (रत्नों का खजाना समुद्र ) और लक्ष्मी जिसकी सगी बहन है , वह शंख भी यदि भीख माँगता फिरे तो इसका यही मतलब है कि , बिना दिये कुछ किसी को मिलता नहीं।

१७.४ किसी चीज़ की आवश्यकता

लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः ?
सत्यं यत्तपसा च किं शुचिमनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना।।१७.४।।

जिसके पास में लोभ है तो फिर और अवगुण की क्या आवश्यकता ?
यदि चुगली करने की आदत है तो और पापों की क्या जरुरत ?
यदि सच्चाई है तो और तपकी क्या आवश्यकता ?
यदि मन शुद्ध है तो तीर्थ करने की क्या जरूरत ?
सज्जनता है तो और गुणों की जरूरत नहीं , यदि अपना प्रभाव है तो श्रृंगार की कोई आवश्यकता नहीं , यदि अपने पास विद्या है तो धन की कोई आवश्यकता नहीं।
और यदि अपयश विद्यमान है तो मरने की क्या जरुरत है।



१७.३ तपस्या

यद्दूरं यद्दुराराध्यं यच्च दूरैर्व्यवस्थितम्।
तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम्।।१७.३।।

दूर की वस्तु जिसके लिए कठिन आराधना की आवश्यकता पड़ती है वह तपस्या से साध्य हो सकती है। क्योंकि तपस्या सबसे प्रबल चीज होती है।

१७.२ समान व्यवहार

कृते प्रतिकृतिं कुर्यात् हिंसने प्रतिहिंसनम्।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दौष्ट्यं समाचरेत्।।१७.२।।

उपकारी के प्रति उपकार और हिंसक के प्रति हिंसा करने में कोई दोष नहीं है, दुष्ट के साथ दुष्टता ही करनी चाहिये।

१७.१ जिस पण्डित ने गुरु के पास न पढ़कर

पुस्तके प्रत्ययाधीतं नाऽधीतं गुरुसन्निधौ।
सभामध्ये न शोभन्ते जारगर्भा इव स्त्रिया।।१७.१।।

जिस पण्डित ने गुरु के पास न पढ़कर पुस्तक से ही विद्या प्राप्त कर ली है।  ऐसे लोग सभा में नहीं शोभते , जैसे व्यभिचार से गर्भवती स्त्री।

१६.२० विद्या और धन

पुस्तकेषु च या विद्या परहस्तेषु युद्धनम्।
उत्पन्नेषु च कार्येषु न सा विद्या न तद्धनम्।।२०।।

जो विद्या कण्ठ में न रहकर पुस्तक में लिखी पड़ी है , जो धन अपने हाथ में न रहकर पराये हाथ में पड़ा है , अर्थात् आवश्यकता पड़ने पर जो अपने काम नहीं आ सकता , वह विद्या न विद्या और न वह धन , धन ही है।

१६.१९ दान , अध्ययन और तप

जन्म - जन्मनि चाभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः।
तेनैवाऽभ्यासयोगेन दही वाऽभ्यस्यते पुनः।।१९।।

दान , अध्ययन और तप जन्म - जन्म के अभ्यास से होते हैं और प्राणी बार - बार इसी का अभ्यास करता रहता है।

१६.१८ कूटवृक्ष के दो अमृत फल

संसारकूटवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे।
सुभाषितं च सुस्वादः संगतिः सज्जने जने।।१८।।

इस संसार रूपी कूटवृक्ष के दो अमृत फल हैं , एक तो अच्छी - अच्छी बातें और दूसरे सज्जनों की संगति।

१६.१७ मीठी बातें

प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वं तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने किं दरिद्रता ?।।१७।।

मीठी बातें करने से सभी लोग प्रसन्न रहते हैं।  ऐसी दशा में मीठी ही बातें करनी चाहिए। बात बोलने में कौन कमी है।

१६.१६ मानभंग

वरं प्राणपरित्यागो मानभङ्गेन जीवनात्।
प्राणत्यागे क्षण दुःखं मानभङ्गे दिने दिने।।१६।।

मानभंग करके जीने की अपेक्षा मर जाना ही अच्छा है। क्योंकि प्राण त्याग का दुःख थोड़ी देर के लिए होता है और मानभंग का क्लेश तो दिनों - दिन होता रहता है।

१६.१५ याचक

तृणं लघु तृणात्तूलं तूलादपि च याचकः।
वायुना किं न नीतोऽसौ मामयं याचयिष्यति।।१५।।

सबसे हल्की चीज़ है तृण , तृण से भी हल्की है रूई , रूई से भी हल्का है याचक (माँगने वाला )। अब प्रश्न यह होता है कि , इतने हल्के जीव को वायु क्यों न उड़ा ले गया , तो कहते हैं कि , वायु नेउसे इसलिए नहीं उड़ाया कि , मेरे पास भी आकर कुछ माँग न बैठे। 

१६.१४ दान

क्षीयन्ते सर्वदानानि यज्ञ - होम - बलिक्रियाः।
न क्षीयन्ते पात्रदानमभयं यत्तु देहिनाम्।।१४।।

वैसे यज्ञ , होम  और बलिदान आदि दान समय बीतने पर नष्ट हो जाते हैं , पर सत्पात्र को दिया हुआ दान और सर्वसाधारण को दिया दान नष्ट नहीं होता।

१६.१३ धन , जीवन , स्त्री और भोजन

धने जीवितव्येषु स्त्रीषु चाहारकर्मसु।
अतृप्ताः प्राणिनः सर्वे याता यास्यन्ति यान्ति च।।१३।।

धन , जीवन , स्त्री और भोजन इन चार चीजों से संसार के सभी प्राणी हमेशा अतृप्त रहे हैं।  सब इनसे अतृप्त होकर ही चले गये , चले जायेंगे और चले जा रहे हैं।

१६.१२ धन

किं तया क्रियते लक्ष्म्या या बधूरिव केवला।
या तु वेश्येव सामान्या पथिकैरपि भुज्यते।।१२।।

उस धन से क्या हो सकता है जो बहू की तरह घर के भीतर बन्द रहे अथवा उस धन से भी कुछ नहीं हो सकता जो लावारिसी तौर से वेश्या की तरह पड़ा हो और रास्ते चलने वाले ऐरे - गैरे भी उसे भोगें।

१६.११ धन

अतिक्लेशेन ये अर्था धर्मस्याऽतिक्रमेण तु।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था न भवन्तु मे।।११।।

ज्यादा तकलीफ उठाकर , धर्म छोड़कर या शत्रु से नीचा देखकर धन प्राप्त होता हो तो, ऐसा धन मुझे नहीं चाहिए।  

१६.१० गुण

 गुणैः सर्वज्ञतुल्योऽपि सीदत्येको निराश्रयः।
अनर्घ्यमपि माणिक्यं हेमाश्रयमपेक्षते।।१०।।

कोई गुण में चाहे विष्णु भगवान् के समान ही क्यों न हो पर आश्रय के बिना अकेला रहकर भी वह दुखी ही होता है। मणि कितना ही बेशकीमती क्यों न हो , जब तक कि वह सोने के किसी जेवर में नहीं जड़ा जाता तबतक बेकार ही रहता है।  

१६.९ गुण

विवेकिनमनुप्राप्ता गुणाः यान्ति मनोज्ञताम् ।
सुतरां रत्नमाभाति चामीकरनियोजितम्।।९।।

गुण जब किसी समझदार मनुष्य के पास जाते हैं तभी सुन्दर लगते हैं।  रत्न सोने के अलंकार में जड़ दिया जाता है , तभी जँचता है।

१६.८ गुण

परमोत्कगुणो यस्तु निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽपि लघतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः।।८।।

दूसरे मनुष्य जिसके गुणों की प्रशंसा करें वह गुणहीन होता हुआ भी गुणी हो जाता है।  और अपने मुँह अपने गुणों का बखान करने से तो इन्द्र भी छोटे ही मानें जायेंगे।  

१६.७ गुण

गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते महत्योऽपि सम्पदः।
पूर्णेन्दुः किं तथा वन्द्यो किष्कलङ्को यथा कृशः।।७।।

गुण सर्वत्र पूजे जाते हैं , धन चाहे जितना हो वह सब जगह नहीं पुजायेगा।  जिस तरह कि द्वितीया के दुर्बल  चन्द्रमा की वन्दना की जाती है , उस तरह पूर्ण चन्द्रमा की वन्दना नहीं की जाती है।  

१६.६ गुण

गुणैरूत्तमतां  यान्ति नोच्चैरासनसंस्थिताः।
प्रसादशिखरस्थोऽपि किं काकः गरुडायते ? ।।६।।    

मनुष्य अपने गुणों से उत्तम बनता है , ऊँचे आसन पर बैठ जाने से नहीं।  क्या भव्य भवन के शिखर पर बैठकर कौआ कौए से गरुड़ हो जायेगा।

१६.५ विनाशकाल और बुद्धि

न निर्मिता केन न दृष्टपूर्वा न श्रूयते हेममयी कुरंगी।
तथाऽपि तृष्णा रघुनंदनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः।।५।।

न कभी किसी ने बताया , न कभी किसी के मुख से सुवर्णमय मृग होने की बात ही सुनी गयी।  फिर भी रामचन्द्रजी को लोभ हो ही गया।  जब विनाशकाल उपस्थित हो जाता है तब समझदार की भी बुद्धि उलटी हो जाती है।

 

१६.४ संसार में कौन

कोऽर्थान् प्राप्य न गर्वितोविषयिणः कस्याऽऽपदोऽस्तङ्गत्ताः
स्त्रीभिः कस्य न खण्डितं भुवि मनः को नाम राज्यप्रियः।
कः कालस्य न गोचरत्वमगमत् कोऽर्थी गतो गौरवम् ?
को वा दुर्जनदुर्गणेषु पतितः क्षेमेण यातः पथि ? ।।४।।   

धन प्राप्त कर किसको गर्व नहीं हुआ ? संसार में कौन ऐसा विषयी पुरुष है कि जिसकी विपत्तियाँ नष्ट हो गयी हैं , कौन ऐसा है जिसका मन स्त्रियों के द्वारा खण्डित न हो गया हो , कौन ऐसा है जो राजा को प्रिय है , कौन ऐसा है जो काल की दृष्टि से बच गया है , कौन ऐसा मनुष्य है जो किसी के यहाँ माँगने के लिए जाकर भी गौरव को प्राप्त हुआ हो , और कौन ऐसा है कि जो दुष्टों की दुष्टता में फँसकर भी कुशलपूर्वक दुनियाँ का रास्ता तै कर गया है?

१६.३ मूर्ख

यो मोहान्मन्यते मूढो रक्तेयं मयि कामिनी।
स तस्यां वशगो भूत्वा नृत्येत् क्रीडाशकुन्तवत्।।३।।

जो मूर्ख यह सोचता है कि , अमुक स्त्री मेरे पर मुग्ध है , वह उसके वशीभूत होकर खिलौने की चिड़िया के समान नाचता रहता है।

१६.२ स्त्रियाँ

जल्पन्ति सार्द्धमन्येन पश्यन्त्यन्यं सविभ्रमाः।
हृदये चिन्तयन्त्यन्यं न स्त्रिणामेकतो रतिः।।१६.२।।

स्त्रियाँ बातें दूसरे से करती हैं , नखड़े के साथ देखती हैं , किसी दूसरे की ओर , मन में सोचती है किसी और को , स्त्रियों का प्रेम एक जगह रहता ही नहीं है।

१६.१ बूढ़े का पश्चात्ताप

न ध्यातुं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये
स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुरधर्मोऽपि  नोपार्जितः।
नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नाऽऽलिङ्गितं
मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम्।।१६.१।।

किसी मुमूर्शु बूढ़े का पश्चात्ताप है कि , संसार के बन्धन को तोड़ने के लिये न मैंने ईश्वर के चरणों का ध्यान किया , न स्वर्ग के दरवाजे तोड़ने की सामर्थ्य रखनेवाले धर्म का ही उपार्जन किया और न कामिनी के कठोर कुच तथा जाँघ का स्वप्न में भी आलिङ्गन किया।  जीवन व्यर्थ ही चला गया।  हम अपनी माता के यौवन को काटने के लिए कुल्हाड़े ही बने और कुछ नहीं।      

शनिवार, 26 मार्च 2016

१५. १९ पुण्य से यश

उर्व्यां कोऽपि महीधरो लघुतरो दोर्भ्यां घृतो लीलया
तेन त्वं दिवि भूतले च सततं गोवर्धनो गीयसे।
त्वां  त्रैलोक्यधरं वहामि कुचयोरग्रेण तद् गण्यते
किं वा केशव भाषणेन बहुना पुण्यैर्यशो लभ्यते।।१५. १९।।

रुक्मिणी जी भगवान् से कहती हैं , हे केशव ! आपने एक छोटे से पहाड़ को दोनों हाथों से उठा लिया , इसलिये स्वर्ग और पृथ्वी दोनों लोकों में गोवर्धनधारी कहे जाने लगे।  लेकिन तीनों लोकों को धारण करने वाले आपको मैं अपने कुचों के अगले भाग से ही उठा लेती हूँ , फिर भी उसकी कोई गिनती नहीं होती। हे नाथ ! बहुत कुछ कहने से कोई प्रयोजन नहीं , यही समझ लीजिये कि बड़े पुण्य से यश प्राप्त होता है।  

१५.१८ कुलीन पुरुष, शील और गुण

छिन्नोऽपि  चन्दनतरुर्न जहाति गन्धं
वृद्धोऽपि  वारणपतिर्न जहाति लीलाम्।
यन्त्रार्पितो मधुरतां न जहाति चेक्षुः
क्षीणोऽपि  न त्यजति शीलगुणान् कुलीनः।।१५.१८।।

काटे जाने पर भी चन्दन का वृक्ष अपनी सुगन्धि नहीं छोड़ता , बूढ़ा हाथी भी खेलवाड़ नहीं छोड़ता , कोल्हू में पेरे जाने पर भी ईख मिठास नहीं छोड़ता , ठीक इसी प्रकार कुलीन पुरुष निर्धन होकर भी अपना शील और गुण नहीं छोड़ता।  

१५.१७ प्रेम की डोर

बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि प्रेमरज्जुकृतबन्धनमन्यत्।
दारुभेद - निपुणोऽपि षडङ्घ्रिर्नीष्क्रियो भवति पंकजकोशे।।१५.१७।।

वैसे तो बहुत से बन्धन हैं , पर प्रेम की डोर का बन्धन कुछ और ही है।  काठको काटने में निपुण भ्रमर कमलदल को काटने में असमर्थ होकर उसमें बँध जाता है।  

१५.१६ दरिद्र ब्राह्मण

पितः क्रुद्धेन तातश्चरणतलहतो वल्लभो येन रोषा -
दाबाल्याद्विप्रवर्यैः स्ववदनविवरे धार्यते वैरिणी मे।
गेहं में छेदयन्ति प्रतिदिवसमुमाकान्तपूजनिमित्तं
तस्मात्खिन्ना सदाऽहं द्विजकुलनिलयं नाथयुक्तं त्यजामि।।१५.१६।।

ब्राह्मण अधिकांश दरिद्र दिखाई देते हैं।  कवि कहता है कि , इस विषय पर किसी प्रश्नोत्तर के समय लक्ष्मीजी भगवान् से कहती हैं - जिसने क्रुद्ध होकर मेरे पिता को पी लिया , मेरे स्वामी को लात से मारा , बाल्यकाल से ही जो रोज ब्राह्मण लोग वैरिणी (सरस्वती ) को अपने मुख - विवर में आसन दिये रहते हैं , शिवजी के पूजन के लिये जो रोज मेरा घर (कमल) उजाड़ा करते हैं , इन्हीं कारणों से नाराज होकर हे नाथ ! मैं सदैव ब्राह्मण का घर छोड़े रहती हूँ - वहाँ जाती ही नहीं।  

१५.१५ परदेश

अलिरयं नलिनीदलमध्यगः कमलिनीमकरन्दमदालसः।
विधिवशात्परदेशमुपागतः कुटजपुष्परसं बहु मन्यते।।१५.१५।।

यह एक भौंरा है , जो पहले कमलदल के ही बीच में कमलींनी का बास लेता रहता था , संयोगवश वह अब परदेश में जा पहुँचा है , वहाँ वह कौरैया के पुष्परस को ही बहुत समझता है।

१५.१४ पराये घर

अयममृतनिधानं नायकोऽप्यौषधीनां अमृतमयशरीरः कान्तियुक्तोऽपि  चन्द्रः।
भवति विगतरश्मिर्मण्डलं प्राप्य भानोः परसदननिविष्टः को लघुत्वं न याति।।१५.१४।।  

यद्यपि चन्द्रमा अमृत का भण्डार है , औषधियों का स्वामी है , स्वयं अमृतमय है और कान्तिमान् है।  फिर भी जब वह सूर्य के मण्डल में पड़ जाता है तो किरण रहित हो जाता है।  पराये घर जाकर भला कौन ऐसा है कि जिसकी लघुता न साबित होती हो।  

१५.१३ द्विजमयी नौका

धन्या द्विजमयी नौका विपरीता भवार्णवे।
तरन्त्यधोगताः सर्वे उपरिस्थाः पतन्त्यधः।।१५.१३।।

यह द्विजमयी नौका धन्य है कि , जो इस संसाररूपी सागर में उलटे तौर पर चलती है , जो इससे नीचे (नम्र ) रहते हैं , वे तर जाते हैं और जो ऊपर (उद्धत ) रहते हैं।  वे नीचे चले जाते हैं।

१५.१२ अपनी समझ

पठन्ति चतुरो वेदान् धर्मशास्त्राण्यनेकशः।
आत्मानं नैव जानन्ति दर्वी पाकरसं यथा।।१५.१२।।

कितने लोग चारों वेद और बहुत से धर्मशास्त्र पढ़ जाते हैं , पर वे अपने को नहीं समझ पाते , जैसे की कलछुल पाक में रहकर भी पाक का स्वाद नहीं जान सकती।


१५.११ अभ्यागतों की सेवा

दूरागतं पथि श्रान्तं वृथा च गृहमागतम्।
अनर्चयित्वा यो भुड्क्ते स वै चाण्डाल उच्यते।।१५.११।।

जो दूर से आ रहा हो , थका हो इन अभ्यागतों की सेवा किये बिना जो भोजन कर लेता है उसे चाण्डाल कहना चाहिए।

१५.१० मतलब की बात

अनन्तशास्त्रं बहुलाश्च विद्याः अल्पं च कालो बहुविघ्नता च।
यत्सारभूतं तदुपासनीयं हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात्।।१५.१०।।

शास्त्र अनन्त हैं , बहुत सी विद्यायें हैं , मनुष्य को उचित है कि जैसे हंस सबको छोड़कर पानी से दूध केवल लेता है , उसी तरह जो अपने मतलब की बात हो , उसे ले लें बाकी सब छोड़ दें।

१५.९ मूल्य

मणिर्लुण्ठति पादाग्रे काचः शिरसि धार्यते।
क्रयविक्रयवेलायां काचः काचो मणिर्मणिः।।१५.९ ।।

वैसे मणि पैरों तले लुढ़के और काँच माथे पर रखा जाय तो इसमें उन दोनों के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता।  पर जब वे दोनों बाजार में बिकने आयेंगे और उनका क्रय - विक्रय होने लगेगा तब काँच काँच ही रहेगा और मणि मणि ही।

१५.८ भोजन, प्रेम, समझदारी और धर्म

तभ्दोजनं यद् द्विजभुक्तशेषं तत्सौहृदं यत् क्रियते परस्मिन्।
सा प्राज्ञता या न करोति पापं दम्भं वीना यः क्रियते स धर्मः।।१५.८।।

वही भोजन भोजन है जो ब्राह्मणों के जीम लेने के बाद बचा हो , वही प्रेम प्रेम है जो स्वार्थ वश अपने ही लोगों में न किया जाकर औरों पर भी किया जाय।  वही विज्ञता ( समझदारी ) है कि जिसके प्रभाव से कोई पाप न हो सके और वही धर्म है कि जिसमें आडम्बर न हो।

१५.७ योग्य अयोग्य

अयुक्तं स्वामिनो युक्तं युक्तं नीचस्य दूषणम्।
अमृतं राहवे मृत्युर्विषं शङ्कर - भूषणम्।।१५.७।।

अयोग्य कार्य भी यदि कोई प्रभावशाली व्यक्त्ति कर गुजरे तो वह उसके लिए योग्य हो जाता है और नीच प्रकृति का मनुष्य यदि उत्तम काम भी करता है तो वह उसके करने से अयोग्य साबित हो जाता है।  जैसे अमृत भी राहु के लिए मृत्यु का कारण बन गया और विष भी शिवजी के कण्ठका श्रिङ्गार हो गया।

१५.६ अन्याय से कमाया हुआ धन

अन्यायोपार्जितं द्रव्यं दश वर्षाणि तिष्ठति।
प्राप्ते एकादशे वर्षे समूलं च विनश्यति।।१५.६।।

अन्याय से कमाया हुआ धन केवल दस वर्ष तक टिकता है , ग्यारहवाँ वर्ष लगने पर वह मूल धन के साथ नष्ट हो जाता है।

१५.५ धन ही मनुष्य का बन्धु

त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं दाराश्च सुहृज्जनाश्च।
तं चाऽर्थवन्त पुनराश्रयन्तं ह्यर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धुः।।१५.५।।

निर्धन मित्र को मित्र , स्त्री , सेवक और सगे - सम्बन्धी छोड़ देते हैं और वही जब फिर धनी हो जाता है तो वह लोग उसके साथ हो लेते हैं।  मतलब यह कि संसार में धन ही मनुष्य का बन्धु है।

१५.४ लक्ष्मी

कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणं बह्वाशिनं निष्ठुरभाषिणं  च।
सूर्योदये वाऽस्तमिते शयानं विमुञ्चति श्रीर्यदि चक्रपाणिः।।१५.४।।

मैले कपड़े पहननेवाला , मैले दाँतवाला , भुक्खड़ , नीरस बात करनेवाला और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय तक सोनेवाला यदि ईश्वर ही हो तो उसे भी लक्ष्मी त्याग देती हैं।  

१५.३ दुष्ट मनुष्य और कण्टक

खलानां कण्टकानां च द्विविधैव प्रतिक्रिया।
उपानद् मुखभङ्गो वा दूरतैव विसर्जनम्।।१५.३।।

दुष्ट मनुष्य और कण्टक , इन दोनों के प्रतिकार के दो ही मार्ग हैं।  या तो उनके लिए पनही ( जूते ) का उपयोग किया जाय या तो उन्हें दूर ही से त्याग दें।

१५.२ गुरु का एक अक्षर

 एकमेवाक्षरं यस्तु गुरुः शिष्यं प्रबोधयेत्।
पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद् दत्त्वा चाऽनृणी भवेत्।।१५.२।।

यदि गुरु एक अक्षर भी बोलकर शिष्य को उपदेश दे देता है तो पृथ्वी में कोई ऐसा द्रव्य है ही नहीं जिसे देकर उस गुरु से उऋण हुआ जाय।

 

१५.१ दया

 यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु।
तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटाभस्मलेपनै:।।१५.१।।

जिसका चित्त दया के कारण द्रवीभूत हो जाता है तो उसे फिर ज्ञान , मोक्ष , जटाधारण तथा भस्मलेपन की क्या आवश्यकता है ?

शुक्रवार, 25 मार्च 2016

१४.१९ चार बातें करने योग्य

त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम्।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यतः।।१४.१९।।

 दुष्टों का साथ छोड़ दो , भले लोंगों के समागम में रहो , अपने दिन और रात को पवित्र करके बिताओ और इस अनित्य संसार में नित्य ईश्वर का स्मरण करते रहो।


१४.१८ धर्म , धन , अन्न , गुरु का वचन और औषधि

धर्मं धनं च धन्यं च गुरोर्वचनमौषधम्।
सुगृहीतं च कर्त्तव्यमन्यथा तु न जीवति।।१४.१८।।

धर्म , धन , अन्न , गुरु का वचन और औषधि इन वस्तुओं को सावधानी के साथ अपनावे और उनके अनुसार चले।  जो ऐसा नहीं करता , वह जीता नहीं है।

१४.१७ कोयल कि आनन्दित करने वाली वाणी

तावन्मौनेन नियन्ते कोकिलैश्चैव वासराः।
यावत्सर्वजनानन्द - दायिनी वाक् प्रवर्तते।।१४.१७।।

कोयल तब तक चुपचाप दिन बिता देती है जबतक कि वह सब लोगों के मन को आनन्दित करने वाली वाणी नहीं बोलती है।

१४.१६ इन बातों को किसी से न जाहिर करें

सुसिद्धमौषधं धर्म गृहच्छिद्रं च मैथुनम्।
कुभुक्तं कुश्रुतं चैव मतिमान्न प्रकाशयेत्।।१४.१६।।

बुद्धिमान् को चाहिए कि , इन बातों को किसी से न जाहिर करें - अच्छी तरह तैयार की हुई औषधि , धर्म , अपने घर का दोष , मैथुन , दूषित भोजन और निंद्य किंवदन्ती वचन।

१४.१५ तीन जीव तीन दृष्टि

एक एव पदार्थस्तु त्रिधा भवति वीक्षितः।
कुणपं कामिनी मांसं योगिभिः कामिभिः श्वभिः।।१४.१५।।

एक स्त्री के शरीर को तीन जीव तीन दृष्टि से देखते हैं - योगी उसे बदबूदार मुर्दे के रूप में देखते हैं , कामी उसे कामिनी समझता है और कुत्ते उसे मांसपिण्ड जानता है।

१४.१४ पण्डित

 प्रस्तावसदृशं वाक्यं प्रभावसदृशं प्रियम्।
आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स पण्डितः।।१४.१४।।

जो मनुष्य प्रसंगानुसार बात , प्रकृति के अनुकूल प्रेम और अपनी शक्त्ति के अनुसार क्रोध करना जानता है , वही पण्डित है।

१४.१३ पन्द्रह मुखवाले राक्षस

यदिच्छसि वशीकर्त्तुं जगदेकेन कर्मणा।
पुरः पञ्चदशास्येभ्यो गां चरन्तीं निवारय।।१४.१३।।

यदि तुम केवल एक ही काम से सारे संसार को अपने वश में करना चाहते हो , तो पन्द्रह मुखवाले राक्षस के सामने चरती हुई इन्द्रियरूपी गैयों को उधर से हटा लो। ये पन्द्रह मुख कौन हैं - आँख , नाक , कान , जीभ  और त्वचा ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ।  मुख , पाँव , लिंग  और गुदा ये पाँच कर्मेन्द्रिया। रूप , रस , गन्ध , शब्द और स्पर्श , ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं।

१४.१२ गुण और धर्म

स जीवति गुणा यस्य यस्य धर्मः स जीवति।
गुण  - धर्मविहीनस्य जीविं निष्प्रयोजनम्।।१४.१२।।

जो गुणी है , उसका जीवन सफल है या जो धर्मात्मा है , उसका जन्म सार्थक है।  इसके विपरीत गुण और धर्म से विहीन जीवन निष्प्रयोजन है।

१४.११ आग , पानी , मूर्ख , सर्प , नारी और राज परिवार

अग्निरापः स्त्रियो मूर्खाः सर्पो राजकुलानि च।
नित्यं यत्नेन सेव्यानि सद्यः प्राणहराणि षट्।।१४.११।।

आग , पानी , मूर्ख , सर्प , नारी  और राज परिवार इनकी यत्न के साथ आराधना करें।  क्योंकि ये सब तुरन्त प्राण लेने वाले जीव हैं।

१४.१० राजा , अग्नि , गुरु और स्त्रियाँ

अत्यासन्ना विनाशाय दूरस्था न फलप्रदाः।
सेव्यतां मध्यभागेन राजवह्निगुरुस्त्रियः।।१४.१०।।

राजा , अग्नि , गुरु और स्त्रियाँ इनके पास अधिक रहने पर विनाश निश्चित है और दूर रहा जाय तो कुछ मतलब नहीं निकलता।  इसलिए इन चारों की आराधना ऐसे करे कि न ज्यादा पास रहे न ज्यादा दूर।

१४.९ मीठी बातें

यस्माच्च प्रियमिच्छेत्तु तस्य ब्रूयात् सदा प्रियम्।
व्याधो मृगवधं गन्तुं गीतं गायति सुस्वरम् ।।१४.९।।

मनुष्य को चाहिए कि , जिस - किसी से अपना भला चाहता हो , तो उससे हमेशा मीठी बातें करें।  क्योंकि बहेलिया जब हिरन का शिकार करने जाता है तो बड़े मीठे स्वर से गाता है।

१४.८ दूर रहकर भी दूर

दुरस्थोऽपि न दूरस्थो यो यस्य मनसि स्थितः।
यो यस्य हृदये नास्ति समीपस्थोऽपि दूरतः।।१४.८।।

जो मनुष्य जिसके हृदय में स्थान किये है , वह दूर रहकर भी दूर नहीं है।  जो जिसके हृदय में नहीं रहता , वह समीप रहने पर भी दूर है।  

१४.७ दान , तप , वीरता , विज्ञान और नीति

दाने तपसि शौर्ये वा विज्ञाने विनये नये।
विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा।।१४.७।।

दान , तप , वीरता , विज्ञान और नीति इनके विषय में कभी किसी को विस्मित होना ही नहीं चाहिये।  क्योंकि पृथ्वी में बहुत से रत्न भरे पड़े हैं।

१४.६ पछतावे के समय

उत्पन्नपश्चात्तापस्य बुद्धिर्भवति यादृशी।
तादृशी यदि पूर्वं स्यात् कस्य स्यान्न महोदयः।।१४.६।।

कोई बुरा काम करने पर पछतावे के समय मनुष्य की जैसी बुद्धि रहती है , वैसी यदि पहले ही से रहे तो कौन मनुष्य उन्नत न हो जाय।

१४.५ मोक्षपद

धर्माख्याने श्मशाने च रोगिणां या मतिर्भवेत्।
सा सर्वदैव तिष्ठेच्चेत् को न मुच्येत बन्धनात्।।१४.५।।

कोई धार्मिक आख्यान सुनने पर , श्मशान में और रुग्णावस्था में मनुष्य की जैसी बुद्धि रहती है , वैसी यदि हमेशा रहे तो कौन मनुष्य मोक्षपद न प्राप्त कर ले ?

१४.४ पात्र के प्रभाव

जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि।
प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारं वस्तुशक्त्तितः।।१४.४।।

जल में तेल , दुष्ट मनुष्य में कोई गुप्त बात , सुपात्र में थोड़ा भी दान और समझदार मनुष्य के पास शास्त्र , थोड़े होते हुए भी पात्र के प्रभाव से तुरन्त फैल जाते हैं।

१४.३ सङ्गठित बल

बहूनां चैव सत्त्वानां समवायो रिपुञ्जयः।
वर्षन् धाराधरो मघस्तृणैरपि निवार्यते।।१४.३।।

बहुत प्राणियों का सङ्गठित बल शत्रु को परास्त कर देता है , प्रचण्ड वेग के साथ बरसते हुए मेघ को सङ्गठन के बल से क्षुद्र तिनके हरा देते हैं।

१४.२ गया हुआ यह शरीर

पुनर्वित्तं पुनर्मित्रं पुनर्भार्या पुनर्मही।
एतत्सर्व पुनर्लभ्यं न शरीरं पुनः पुनः।।१४.२।।

गया हुआ धन वापस मिल सकता है , रूठा हुआ मित्र भी राजी किया जा सकता है , हाथ से निकली हुई स्त्री भी वापस आ सकती है और छीनी हुई जमीन भी फिर मिल सकती है , पर गया हुआ यह शरीर वापस नहीं मिल सकता।

१४.१ अपराध रूपी वृक्ष

आत्मापराधवृक्षस्य फलोन्येतानि देहिनाम् ।
दारिद्र्य - रोग  - दुःखानि बन्धनव्यसनानि।।१४.१।।

मनुष्य के अपने द्वारा पल्लवित अपराध रूपी वृक्ष के ये ही फल फलते हैं - दरिद्रता , रोग , दुःख , बन्धन (कैद) और व्यसन।

१३.२१ अन्न , जल और मीठी -मीठी बातें

पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि अन्नमापः सुभाषितम्।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंख्या विधीयते।।१३.२१।।

सच पूछो तो पृथ्वी भर में तीन ही रत्न हैं - अन्न , जल और मीठी -मीठी  बातें।  लेकिन बेवकूफ लोग पत्थर के टुकड़ों को ही रत्न मानते हैं।

१३. २० सज्जन लोग

युगान्ते प्रचलेन्मेरू: कल्पान्ते सप्त सागराः।
साधवः प्रतिपन्नार्थान्न चलन्ति कदाचन।।१३. २०।।

युग का अन्त हो जाने पर सुमेरु पर्वत डिग जाता है।  कल्प का अन्त होने पर सातों सागर भी चंचल हो उठते हैं, पर सज्जन लोग स्वीकार किये हुये मार्ग से विचलित नहीं होते।

१३.१९ एक अक्षर देने वाले

एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुं नाऽभिवन्दते।
श्वानयोनिशतं भुक्त्वा चाण्डालेष्वभिजायते।।१३.१९।।

एक अक्षर देने वाले को भी जो मनुष्य अपना गुरु नहीं मानता तो वह सैकड़ों बार कुत्ते की योनि में रह - रह कर अन्त में चाण्डाल होता है।  

१३.१८ समझ - बूझ कर

कर्मायत्तं फलं पुंसां बुद्धिः कर्मानुसारिणी।
तथाऽपि सुधियश्चार्याः  सुविचार्यैव कुर्वते।।१३.१८।।

यद्यपि प्रत्येक मनुष्य को कर्मानुसार ही फल प्राप्त होता है और बुद्धि भी कर्मानुसार ही बनती है।  फिर भी बुद्धिमान लोग अच्छी तरह समझ  - बूझ कर ही कोई काम करते हैं।

१३.१७ गुरु के पास विद्यमान् विद्या

यत् खनित्वा खनित्रेण भूतले वारि विन्दति।
तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति।।१३.१७।।

जैसे फावड़े से खोदने पर पृथ्वी से जल निकल आता है।  उसी तरह किसी गुरु के पास विद्यमान् विद्या उसकी सेवा करने से प्राप्त हो जाती है।

१३.१६ कार्य अव्यवस्थित

 अनवस्थिकार्यस्य न जने न वने सुखम्।
जनो दहति संसर्गाद्वनं सङ्गविवर्जनात्।।१३.१६।।

जिसका कार्य अव्यवस्थित रहता है उसे न समाज में सुख है , न वन में।  समाज में संसर्ग से दुखी रहता है तो वन मे संसर्ग त्याग से दुःखी रहेगा।

१३.१५ कर्म (भाग्य)

यथा धेनुसहस्त्रेषु वत्सो गच्छति मातरम्।
तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति।।१३.१५।।

जैसे हज़ारों गौओं में बछड़ा अपनी ही माँ के पास जाता है।  उसी तरह प्रत्येक मनुष्य का कर्म (भाग्य) अपने स्वामी के ही पास जा पहुँचता है।

१३.१४ मन के अनुसार सुख

ईप्सितं मनसः सर्वं कस्य सम्पद्यते सुखम्।
दैवायत्तं यतः सर्वं तस्मात् सन्तोषमाश्रयेत्।।१३.१४।।

अपने मन के अनुसार सुख किसे मिलता है।  क्योंकि संसार का सब काम दैव के अधीन है। इसलिये जितना सुख प्राप्त हो जाय , उतने में ही सन्तुष्ट रहो।

१३.१३ परमात्मज्ञान

देहाभिमानगलिते ज्ञानेन परमात्मनः।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः।।१३.१३।।

परमात्मज्ञान से मनुष्य का जो देहाभिमान गल जाता है तो फिर जहाँ कहीं भी उसका मन जाता है तो उसके लिए सर्वत्र समाधि ही है।

१३.१२ मन

बन्धाय विषयासङ्गं मुक्त्यै निर्विषयं मनः।
मन एव मनुष्याणां करणं बन्ध - मोक्षयोः।।१३.१२।।

विषयों में मन को लगाना ही बन्धन है और विषयों से मन को हटाना ही मुक्त्ति है। भाव यह कि , मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का हेतु है।

१३.११ यशरूपी अग्नि

दह्यमानाः सुतीव्रेण नीचाः परयशोऽग्निना।
अशक्त्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते।।१३.११।।

नीच प्रकृति के लोग औरों के यशरूपी अग्नि से जलते रहते हैं , उस पद तक तो पहुँचने की सामर्थ्य उनमें रहती नहीं।  इसलिए वे उसकी निन्दा करने लग जाते हैं।  

१३.१० चार पदार्थ

धर्मार्थकाममोक्षणां यस्यैकोऽपि न विद्यते।
अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम्।।१३.१०।।

धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष , इन चार पदार्थों में - से एक पदार्थ भी जिसके पास नहीं हैं , तो बकरी के गले में लटकनें वाले स्तनों के समान उसका जन्म ही निरर्थक है।  

१३.९ धर्मविहीन और धर्मात्मा

जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम्।
मृतो धर्मेण संयुक्त्तो दीर्घजीवी न संशयः।।१३.९।।

धर्मविहीन मनुष्य को मैं जीते मुर्दे की तरह मानता हूँ। जो धर्मात्मा था , पर मर गया तो वह वास्तव में दीर्घजीवी था।
 

१३.८ जैसा राजा वैसी प्रजा

राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः।
राजानमनुवर्तन्ते यथा  राजा तथा प्रजाः।।१३.८।।

राजा अगर धर्मात्मा होता है तो उसकी प्रजा भी धर्मात्मा होती है , राजा पापी होता है तो उसकी प्रजा भी पापी होती है।  सम राजा होता है तो प्रजा भी सम ही होती है। कहने का भाव यह है कि सब राजा का ही अनुसरण करते हैं।  जैसा राजा होगा , उसकी प्रजा भी वैसी ही होगी।

१३.७ आनेवाली विपत्ति

अनागतविधाता च प्रत्युत्पन्नमतिस्तथा।
द्वावेतौ सुखमेधेते यद्भविष्यो विनश्यति।।१३.७।।

जो मनुष्य भविष्य में आनेवाली विपत्ति से होशियार है और जिसकी बुद्धि समय पर काम कर जाती है ये दो मनुष्य आनन्द से आगे बढ़ते जाते हैं।  इनके विपरीत जो भाग्य में लिखा होगा , जो यह सोचकर बैठने वाले हैं उनका नाश निश्चित है।

१३.६ स्नेह

यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम्।
स्नेहमूलानी दुःखानि तानि त्यक्त्वा वसेत्सुखम्।।१३.६।।

जिसके हृदय में स्नेह (प्रीति ) है , उसको भय है।  जिसके पास स्नेह है , उसको दुःख है।  जिसके हृदय में स्नेह है, उसी के पास तरह - तरह के दुःख रहते हैं।  जो इसे त्याग देता है वह सुख से रहता है।

१३.५ नम्र

अहो बता विचित्राणी चरितानि महात्मनाम्।
अक्ष्मीं तृणाय मन्यन्ते तद्भारेण नमन्ति च।।१३.५।।

अहो ! महात्माओं के चरित्र , भी विचित्र होते हैं।  वैसे तो वे लक्ष्मी को तिनके की तरह समझते हैं। और जब वह आ ही जाती हैं तो इनके भार से दबकर नम्र हो जाते हैं।

१३.४ आयु , कर्म , सम्पत्ति , विद्या और मरण

आयुः कर्म च वित्तं विद्या निधनमेव च।
पञ्चैतानि च सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः।।१३.४।।

आयु , कर्म , सम्पत्ति , विद्या और मरण ये पाँच बातें तभी तय हो जाती हैं , जब कि मनुष्य गर्भ में ही रहता है।

१३.३ स्वभाव देखकर प्रसन्न

स्वभावेन हि तुष्यन्ति देवाः सत्पुरुषाः पिता।
ज्ञातयः स्नान - पानाभ्यां वाक्यदानेन पण्डिताः।।१३.३।।

देवता , भले मानुष और पिता ये तीन स्वभाव देखकर प्रसन्न होते हैं। भाई वृन्द स्नान और पान से तथा वाक्य पालन से पण्डित लोग खुश होते हैं।

१३.२ सामने की बात

गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत्।
वर्तमानेन कालेन प्रवर्त्तन्ते विचक्षणाः।।१३.२।।

जो बात बीत गयी उसके लिए सोच न करो।  और न आगे होने वाली के ही लिए चिन्ता करो।  समझदार लोग सामने की बात को ही हल करने की चिन्ता करते हैं।

१३.१ उज्जवल कर्म

मुहूर्त्तमपि  जीवेच्च नरः शुक्लेन कर्मणा।
न कल्पमपि कष्टेन लोकद्वयविरोधिना।।१३.१।।

मनुष्य यदि उज्जवल कर्म करके एक दिन भी जिन्दा रहे तो उसका जीवन सुफल है।  इसके बदले इहलोक और परलोक इन दोनों के विरुद्ध कार्य करके कल्प भर जीवे तो वह जीना अच्छा नहीं है।

गुरुवार, 24 मार्च 2016

१२.२३ अवस्था के ढल जाने पर

वयसः परिणामेऽपि यः खलः खल एव सः।
संपक्वमपि माधुर्य नोपयातीन्द्रवारुणम्।।१२.२३।।

अवस्था के ढल जाने पर भी जो खल है वस्तुतः वह खल ही बना रहता है , क्योंकि अच्छी तरह पका हुआ भी इन्द्रायन मीठापन को नहीं प्राप्त होता।  

१२.२२ एक - एक बूँद

जलबिन्दुनीपातेन क्रमशः पुर्यते घटः।
स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।।१२.२२।।

धीरे - धीरे एक - एक  बूँद पानी से घड़ा भर जाता है।  यही बात विद्या , धर्म और धन के लिए लागू होती है।  तात्पर्य यह कि , उपर्युक्त्त वस्तुओं के संग्रह में जल्दी न करो।  करता चले , धीरे - धीरे कभी पूरा हो ही जायेगा।

१२.२१ सुखी रहना

धनधान्यप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणे तथा।
आहारे व्यवहारे च त्यक्त्तलज्जः सुखी भवेत्।।१२.२१।।

जो मनुष्य धन तथा धान्य के व्यवहार में, पढ़ने - लिखने में , भोजन में और लेन - देन में निर्लज्ज होता है , वही सुखी रहता है।

 

१२.२० चिन्ता धर्म की

नाऽऽहारं चिन्तयेत् प्राज्ञो धर्ममेकं हि चिन्तयेत्।
आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते।।१२.२०।।

विद्वान् को चाहिए कि , वह भोजन की चिन्ता न किया करे।  चिन्ता करे केवल धर्म की , क्योंकि आहार तो मनुष्य के पैदा होने के साथ ही नियत हो जाया करता है।  

१२.१९ देखते - देखते चौपट हो जाना

अनालोच्य व्ययं कर्ता अनाथः कलहप्रियः।
आतुरः सर्वक्षत्रेषु नरः शीघ्रं विनश्यति।।१२.१९।।

बिना समझे - बूझे खर्च करने वाला , अनाथ , झगड़ालू और सब तरह की स्त्रियों के लिए बेचैन रहने वाला मनुष्य देखते - देखते चौपट हो जाता है।
 

१२.१८ चार चीज़ें

 विनयं राजपुत्रेभ्यः पण्डितेभ्यः सुभाषितम्।
अनृतं द्यूतकारेभ्यः स्त्रीभ्यः शिक्षेत् कैतवम्।।१२.१८।।

मनुष्य को चाहिए कि , विनय ( तहजीब ) राजकुमारों से , अच्छी - अच्छी बातें पण्डितों से , झुठाई  जुआरियों से  और छल - कपट  स्त्रियों से सीखे।

१२.१७ चार चीज़ें हित करने वाली

विद्या मित्रं प्रवासे च भार्या मित्रं गृहेषु च।
व्यधितस्यौषधं मित्रं धर्मों मित्रं मृतस्य च।।१२.१७।।

प्रवास में विद्या हित करती है , घर में स्त्री मित्र है , रोगग्रस्त पुरुष का हित औषधि होता है और धर्म मरे का उपकार करता है।

१२.१६ तुलना

काष्ठं कल्पतरुः सुमेरुरचलश्चिन्तामणी प्रस्तरः
सुर्यस्तीव्रकरः शशी क्षयकरः क्षारो हि वारां निधिः।
कामो नष्टतनुर्बलिदितिसुतो नित्यं पशुः कामगौ-
र्नैतांस्ते  तुलयामि भो रघुपते कस्योपमा दीयते।।१२.१६।। 

कल्पवृक्ष काष्ठ है , सुमेरु अचल है , चिन्तामणि पत्थर है , सूर्य की किरणें तीखी हैं , चन्द्रमा घटता - बढ़ता  है , समुद्र खारा है , कामदेव शरीर रहित है , बलि दैत्य है और कामधेनु पशु है।  इसलिए इनके साथ तो मैं आपकी तुलना नहीं कर सकता।  तब हे रघुपते ! किसके साथ आपकी उपमा दी जाय ? 

१२.१५ वसिष्ठजी श्रीरामचन्द्रजी से कहते हैं

धर्मे तत्परता मुखे मधुरता दाने समुत्साहता
मित्रेऽवञ्चकता गुरौ विनयता चित्तेऽतिगम्भीरता।
आचारे शुचिता गुणे रसिकता शास्त्रेषु विज्ञातृता
रुपे सुन्दरता शिवे भजनता त्वय्यस्ति भो राघवा।।१२.१५।।

वसिष्ठजी श्रीरामचन्द्रजी से कहते हैं - हे राघव ! धर्म में तत्परता , मुख में मधुरता , दान  में उत्साह , मित्रों में निश्छल व्यवहार , गुरुजनों के समक्ष नम्रता , चित्त में गम्भीरता , आचार में पवित्रता , शास्त्रों में विज्ञता , रूप में सुन्दरता और शिवजी में भक्त्ति ये गुण केवल आप ही में है।  

१२.१४ पण्डित

मातृवत्परदारेषु परद्रव्याणि लोष्टवत्।
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स पण्डितः।।१२.१४।।

जो मनुष्य परायी स्त्री को माता के समान समझता , पराया धन मिट्टी के ढेले के समान मानता और अपने ही तरह सब प्राणियों के सुख - दुःख  समझता है वही पण्डित है।

मंगलवार, 22 मार्च 2016

१२.१३ मेरा उत्सव

निमन्त्रणोत्सवा विप्रा गावो नवतृणोत्सवाः।
पत्युत्साहयुता भार्या अहं कृष्णा रणोत्सवः।।१२.१३।।

ब्राह्मण का उत्सव है निमन्त्रण , गौओं का उत्सव है नई घास।  स्त्री का उत्सव है पति का आगमन , किन्तु हे कृष्ण ! मेरा उत्सव है युद्ध।

१२.१२ धर्म का संग्रह

अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः।
नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्त्तव्यो धर्मसंग्रहः।।१२.१२।।

शरीर क्षणभंगुर है , धन भी सदा रहने वाला नहीं है , मृत्यु बिल्कुल समीप विद्यमान है।  इसलिए धर्म का संग्रह करो।

१२.११ छः बान्धव

सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा।
शान्तिः पत्नी क्षमा पुत्रः षडेते मम बान्धवाः।।१२.११।।

कोई ज्ञानी किसी के प्रश्न का उत्तर देता हुआ कहता है कि , सत्य  मेरी माता है , ज्ञान पिता है , धर्म भाई है , दया मित्र है , शांति स्त्री है और क्षमा पुत्र है , ये ही मेरे छः बान्धव हैं।

१२.१० श्मशान के तुल्य

 न विप्रपादोदकपङ्कजानि न वेदशास्त्रध्वनिगर्जितानि।
स्वाहा - स्वधाकार - विवर्जितानि श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि।।१२.१०।।

जिस घर में ब्राह्मणों के पैर धुलने से कीचड़ नहीं होता , जिसके यहाँ वेद और शास्त्रों की ध्वनि का गर्जन नहीं होता और जिस घर में स्वाहा -  स्वधा का कभी उच्चारण नहीं होता , ऐसे घरों को श्मशान के तुल्य समझना चाहिए।

१२.९ सज्जन के उत्तर

विप्राऽस्मिन्नगरे महान् कथय कस्तालद्रुमाणांगणः
को दाता रजको ददाति वसनं प्रातर्गृहीत्वा निशि।
को दक्षः परवित्तदारहरणे सर्वोऽपि दक्षो जनः
कस्माज्जीवसि  हे सखे ! विषकृमिन्यायेन जीवाम्यहम्।।१२.९।।  

कोई पथिक किसी नगर में जाकर किसी सज्जन से पूछता है - हे भाई !

इस नगर में कौन बड़ा है ?
उसने उत्तर दिया - बड़े तो ताड़ के पेड़ हैं।

दाता कौन है ?
धोबी , जो सवेरे कपड़े ले जाता और शाम को वापस दे जाता है।

यहाँ चतुर कौन है ?
पराई स्त्री और दौलत ऐंठने में यहाँ सभी चतुर हैं।

तो फिर हे सखे ! तुम यहाँ जीते कैसे हो ?
उसी तरह जीता हूँ , जैसे कि विष का कीड़ा विष में रहता हुआ भी जिन्दा रहता है।

 

१२.८ सज्जनों का सत्संग

साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः।
कालेन फलते तीर्थं सद्यः साधुसमागमः।।१२.८।।

सज्जनों का दर्शन बड़ा पुनीत होता है।  क्योंकि साधु जन तीर्थ के समान रहते हैं।  बल्कि तीर्थ तो कुछ समय बाद फल देते हैं पर सज्जनों का सत्संग तत्काल फलदायक होता है।

१२.७ सत्संग

सत्सङ्गाद्  भवति हि साधुता खलानां साधूनां नहि खलसङ्गतेः खलत्वम्।
आमोदं कुसुमभवं मृदेव धत्ते मृद्गन्धं नहि कुसुमानि धारयन्ति।।१२.७।।

सत्संग के दुष्ट सज्जन हो जाते हैं।  पर सज्जन उनके संग से दुष्ट नहीं होते।  जैसे फूल की सुगंधि को मिट्टी अपनाती है , पर फूल मिट्टी की सुगन्धि को नहीं अपनाते।

१२.६ कौन मिटा सकता है

पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किं
नोलूकोऽवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम्।
वर्षा नैव पतेत्तु चातकमुखे मेघस्य किं दूषणं
यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः।।१२.६।।  

यदि करीर के पेड़ में पत्ते नहीं लगते तो वसन्त ऋतु का क्या दोष ?
उल्लू दिन को नहीं देखता तो इसमें सूर्य का क्या दोष?
बरसात की बूँदें चातक के मुख में नहीं गिरतीं तो इसमें मेघ का क्या दोष ?
विधाता ने पहले ही ललाट में जो लिख दिया है , उसे कौन मिटा सकता है।

१२.५ धिक्कार है

येषां श्रीमद्यशोदासुतपदकमले नास्ति भक्त्तिर्नराणां
येषामाभीरकन्याप्रियगुणकथने नानुरक्त्ता रसज्ञा।
येषां श्रीकृष्णलीलाललितरसकथा सादरौ नैव कर्णौ
धिक्त्तां धिक्त्तां धिगेतान्  कथयति सततं कीर्तनस्थो मृदङ्गः।।१२.५ ।। 

कीर्तन के समय बजता हुआ मृदंग कहता है कि , जिन मनुष्यों की श्रीकृष्ण चन्द्रजी के चरण - कमलों में भक्त्ति नहीं है , श्रीराधारानी के प्रिय गुणों के कहने में जिसकी रसना अनुरक्त्त नहीं है और श्रीकृष्ण भगवान् की लीलाओं को सुनने के लिए जिसके कान उत्सुक नहीं हैं।  ऐसे लोगों को धिक्कार है , धिक्कार है।

१२.४ मनुष्यों का रूप धारण किये हुए सियार

 हस्तौ दान - विवर्जितौ श्रुतिपुटौ सारस्वतद्रोहिणौ
नेत्रे साधुविलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थं गतौ।
अन्यायार्जित - वित्तपूर्णमुदरं गर्वेण तुङ्गं शिरो
रे रे जम्बुक ! मुञ्च मुञ्च सहसा नीचं सुनिन्द्यं वपुः।।१२.४।।

जिसके दोनों हाथ दान विहीन हैं , दोनों कान विद्याश्रवण से पराङ्मुख हैं नेत्र सज्जनों का दर्शन नहीं करते और पैर तीर्थों का पर्यटन नहीं करते।  जो अन्याय से अर्जित धन से पेट पालते हैं और गर्व से सिर ऊँचा करके चलते हैं , ऐसे मनुष्यों का रूप धारण किये हुए ऐ सियार ! तू झटपट अपने इस नीच और निन्दनीय शरीर को छोड़ दे।

१२.३ कलाकुशल मनुष्य

दाक्षिण्यं स्वजने दया परजने शाठ्यं सदा दुर्जने
प्रीतिः साधुजने स्मयः खलजने विद्वज्जने चार्जवम्।
शौर्यं शत्रुजने क्षमा गुरुजने नारीजने धूर्तता
इत्थं ये पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः।।१२.३।।

जो मनुष्य अपने परिवार में कुशलता और पराये में उदारता , दुर्जनों के साथ शठता , सज्जनों से प्रेम , दुष्टों में अभिमान , विद्वानों में  कोमलता , शत्रुओं में वीरता , गुरुजनों में क्षमा और स्त्रियों में धूर्तता का व्यवहार करते हैं।  ऐसे ही कलाकुशल मनुष्य संसार में आनन्द के साथ रह सकते हैं।

१२.२ श्रद्धापूर्वक और दयाभाव से दान

 आर्तेषु विप्रेषु दयान्वितश्च यच्छ्रद्धया स्वल्पमुपैती दानम्।
अनन्तपारं समुपैति दानं यद्दीयते तन्न लभेद् द्विजेभ्यः।।१२.२।।

जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक और दयाभाव से दीन - दुखियों तथा ब्राह्मणों को थोड़ा भी दान दे देता है तो वह उसे अनन्तगुणा होकर उन दीन ब्राह्मणों से नहीं बल्कि ईश्वर के दरबार से मिलता है।

१२.१ गृहस्थाश्रम के गुण

सानन्दं सदनं सुतास्तु सुधियः कान्ता प्रियालापिनी
इच्छापूर्तिधनं स्वयोषिति रतिः स्वाज्ञापराः सेवकाः।
आतिथ्यं शिवपूजनं प्रतिदिनं मिष्टान्नपानं गृहे
साधोः सङ्गमुपासते च सततं धन्यो गृहस्थाश्रमः।।१२.१।।

आनन्द से रहने लायक घर हो , पुत्र बुद्धिमान हो , स्त्री मधुरभाषिणी हो , मनमाना धन हो , अपनी स्त्री से प्रेम हो , सेवक आज्ञाकारी हो , घर आये हुए अतिथियों को सत्कार हो , प्रतिदिन शिवजी का पूजन होता रहे  और सज्जनों का साथ हो तो फिर वह गृहस्थाश्रम धन्य है।


सोमवार, 21 मार्च 2016

११.१८ आत्म - कल्याण

देयं भोज्यधनं धनं सुकृतिभिर्नो संचंयस्तस्य वै
श्रीकर्णस्य बलेश्च विक्रमपतेरद्यापि कीर्तिः स्थिता।
अस्माकं मधुदानभोगरहितं नष्टं चिरात् सञ्चितं
निर्वाणादिति नष्टपादयुगलं घर्षन्त्यहो मक्षिकाः।।११.१८।।

आत्म - कल्याण की भावनावालों को चाहिये कि अपनी साधारण आवश्यकता से अधिक बचा हुआ अन्न , वस्त्र या धन दान कर दिया करे, जोड़ें नहीं।  दान की ही बदौलत कर्ण , बलि और महाराज विक्रमादित्य की कीर्ति आज भी विद्यमान है।  मधुमक्खियों को देखिये , वे यही सोचती हुई अपने पैर रगड़ती हैं कि 'हाय ! मैंने दान और भोग से रहित मधु को बहुत दिनों में इकठ्ठा किया और वह क्षण भर में दूसरा ले गया '।

११.१७ ब्राह्मण और चाण्डाल

देवद्रव्यं गुरूद्रव्यं परदाराभिमर्षणम्।
निर्वाहः सर्वभूतेषु विप्रश्चाण्डाल उच्यते।।११.१७।।

जो देवद्रव्य और गुरुद्रव्य अपहरण करता , परायी स्त्री के साथ दुराचार करता और लोगों की वृत्ति पर ही जो अपना निर्वाह करता है , ऐसे ब्राह्मण को चाण्डाल कहा जाता है।

११.१६ ब्राह्मण और म्लेच्छ

बापी - कूप - तडागानामारामसुरवेश्मनाम्।
उच्छेदने निराशङ्कः विप्रो म्लेच्छ उच्यते।।११.१६।।

जो बावली , कुआँ , तालाब , बगीचा और देवमन्दिर को नष्ट करने में नहीं हिचकता , ऐसे ब्राह्मण को ब्राह्मण न कहकर म्लेच्छ कहा जाता है।

११.१५ ब्राह्मण और मार्जार विप्र

परकार्यविहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः।
छली द्वेषी मृदुक्रुरो विप्रो मार्जार उच्यते।।११.१५।।

जो औरों का काम बिगाड़ता , पाखण्डपरायण रहता , अपना मतलब साधने में तत्पर रहता , छल आदि कर्म करता , ऊपर से मीठा किन्तु हृदय से क्रूर रहता ऐसे ब्राह्मण को मार्जार विप्र कहते हैं।

११.१४ ब्राह्मण और शूद्र ब्राह्मण

लाक्षादितैलनीलानां कौसुम्भमधुसर्पिषाम्।
विक्रेता मद्यमांसानां स विप्रः शूद्र उच्यते।।११.१४।।

जो लाख , तेल , नील , कूसुम , शहद , घी , मदिरा और मांस बेचता है , उस ब्राह्मण को शूद्र ब्राह्मण कहते हैं।

११.१३ ब्राह्मण और विप्र वैश्य

लौकिके कर्मणि रतः पशूनां परिपालकः।
वाणिज्यकृषिकर्ता यः स विप्रो वैश्य उच्यते।।११.१३।।

जो ब्राह्मण सांसारिक धन्धों में लगा रहता और पशु पालन करता , वाणिज्य व्यवसाय करता या खेती ही करता है वह विप्र वैश्य कहलाता है।

११.१२ ब्राह्मण और द्विज

एकाहारेण सन्तुष्टः षट्कर्मनिरतः सदा।
ऋतुकालेऽभिगामी च स विप्रो द्विज उच्यते।।११.१२।।

जो ब्राह्मण केवल एक बार के भोजन से सन्तुष्ट रहता और यज्ञ , अध्ययन , दानादि षट्कर्मों में सदा लीन रहता और केवल ऋतुकाल में स्त्रीगमन करता है , उसे द्विज कहना चाहिए।

११.११ ब्राह्मण और ऋषि

अकृष्टफलमूलानि वनवासरतिः सदा।
कुरुतेऽहरहः श्राद्धमृषिर्विप्रः स उच्यते।।११.११।।

जो ब्राह्मण बिना जोते -बोये फल पर जीवन बिताता , हमेशा वन में रहना पसन्द करता और प्रतिदिन श्राद्ध करता है , उस विप्र को ऋषि कहना चाहिए।

११.१० विद्यार्थी इन आठ कामों को त्याग दे

कामं क्रोधं तथा लोभं प्यादु श्रृंङ्गारकौतुकम्।
अतिनिद्राऽतिसेवा च विद्यार्थी ह्यष्टवर्जयेत्।।११.१०।।

काम , क्रोध , लोभ , स्वाद , श्रिङ्गार , खेल - तमाशे, अधिक नींद और किसी की अधिक सेवा , विद्यार्थी इन आठ कामों को त्याग दे।  क्योंकि ये आठ विद्याध्ययन में बाधक हैं।  

११.९ स्वर्ग में निवास

ये तु संवत्सर पूर्णं नित्यं मौनेन भुञ्जते।
युगकोटिसहस्त्रं तु स्वर्गलोके महीयते।।११.९।।

जो लोग केवल एक वर्ष तक मौन रहकर भोजन करते हैं , वे दश हजार वर्ष तक स्वर्गवासियों से सम्मानित होकर स्वर्ग में निवास करते हैं।

११.८ गुणों को न जानना

न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्षं स तं तदा निन्दति नाऽत्र चित्रम्।
यथा किराती कुरिकुम्भलब्धां मुक्त्तां परित्यज्य बिभर्ति गुञ्जाम् ।।११.८।।

जो जिसके गुणों को नहीं जानता , वह उसकी निन्दा करता रहता है , तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।  देखों न , जंगल की रहनेवाली भिलनी हाथी के मस्तक की मुक्त्ता को छोड़कर घुँघची ही पहनती है।


११.७ हृदय में पाप

अन्तर्गतमलो दृष्टः तीर्थस्नानशतैरपि।
न शुद्ध्यति तथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत्।।११.७।।

जिसके हृदय में पाप घर कर चुका है , वह सैकड़ों बार तीर्थस्नान करके भी शुद्ध नहीं हो सकता।  जैसे कि मदिरा का पात्र अग्नि में झुलसने पर भी पवित्र नहीं होता।

११.६ दुर्जन व्यक्त्ति को उपदेश

 न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः।
आमूलसिक्त्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति।।११.६।।

दुर्जन व्यक्त्ति को चाहे कितना भी उपदेश क्यों न दिया जाय वह अच्छी दशा को नहीं पहुँच सकता।  नीम के वृक्ष को चाहे जड़ से लेकर सिर तक घी और दूध से ही क्यों न सींचा जाय फिर भी उसमें मीठापन नहीं आ सकता।

११.५ विद्या, दया, सच्चाई और पवित्रता

गृहासक्त्तस्य नो विद्या न दया मांसभोजिनः।
द्रव्यलुब्धस्य नो सत्यं स्त्रैणस्य न पवित्रता।।११.५।।

गृहस्थी के जंजाल  में फँसे व्यक्त्ति को विद्या नहीं आती , मांसभोजी के हृदय में दया नहीं आती , लोभी के पास सच्चाई नहीं आती और कामी पुरुष के पास पवित्रता नहीं आती।

११.४ कलि

कलौ दश सहस्त्राणि हरिस्त्याजति मेदिनीम्।
तदर्द्ध जाह्नवीतोयं तदर्द्धं ग्रामदेवताः।।११.४।।

कलि के दस हज़ार वर्ष बीतने पर विष्णु भगवान् पृथ्वी छोड़ देते हैं। पाँच हज़ार वर्ष बाद गंगा का जल पृथ्वी को छोड़ देता है और उसके आधे यानी ढाई हज़ार वर्ष में ग्रामदेवता ग्राम छोड़कर चले जाते हैं।

११.३ जिसमें तेज है , वही बलवान् है

हस्ती स्थूलतनुः स चांकुशवशः किं हस्तिमात्रोंऽकुशः
दीपे प्रज्वलिते प्रणश्यति तमः किं दीपमात्रं तमः।
वज्रेणापि हताः पतिन्ति गिरयः किं वज्रमात्रा नगाः
तेजे यस्य विराजते स बलवान्स्थूलेषु कः  प्रत्ययः।।११.३।।  

हाथी मोटा - ताजा होता है , किन्तु अंकुश के वश में रहता है , तो क्या अंकुश हाथी के बराबर है ?
दीपक के जल जानेपर क्या अन्धकार दूर हो जाता है , तो क्या अन्धकार के बराबर दीपक है ?
इन्द्र के वज्रप्रहार से पहाड़ गिर जाते हैं , तो क्या वज्र उन पर्वतों के बराबर है ?
इसका मतलब यह निकला कि जिसमें तेज है , वही बलवान् है , यों मोटा - ताजा होने से कुछ नहीं होता।  

११.२ अधर्म

आत्मवर्गं परित्यज्य परवर्गं समाश्रयेत्।
स्वयमेव लयं याति यथा राज्यमधर्मतः।।११.२।।

जो व्यक्त्ति अपना वर्ग छोड़कर पराये वर्ग में जाकर मिल जाता है वह अपने - आप नष्ट हो जाता है।  जैसे अधर्म से राजा लोग नष्ट हो जाते हैं।

११.१ स्वाभाविक सिद्ध चार गुण

दातृत्वं प्रियवकृत्तत्वं धीरत्वमुचितज्ञता।
अभ्यासेन न लभ्यन्ते चत्वारः सहजाः गुणाः।।११.१।।

दानशक्त्ति , मीठी बात करना , धैर्य धारण करना , समय पर उचित अनुचित का निर्णय करना।  ये चार गुण स्वाभाविक सिद्ध हैं।  सीखने से नहीं आते।

१०.२० शाक, दूध, घी और मांस

शाकेन रोगा वर्द्धन्ते पयसो वर्द्धते तनुः।
घृतेन वर्द्धते वीर्यं मांसान्मांसं प्रवर्द्धते।।१०.२०।।

शाक से रोग , दूध से शरीर , घी से वीर्य और मांस से मांस की वृद्धि होती है।

१०.१९ पिसान, दूध, मांस और घी

अन्नाद्दशगुणं पिष्टं पिष्टाद्दशगुणं पयः।
पयसोऽष्टगुणं मांसं मांसाद्दशगुणं घृतम्।।१०.१९।।

खड़े अन्न की अपेक्षा दसगुना बल रहता है पिसान में।  पिसान से दसगुना बल रहता है दूध में।  दूध से अठगुना बल रहता है मांस में और मांस से भी दस गुना बल घी में।

१०.१८ भाषान्तर का लोभ

गीर्वाणवाणीषु विशिष्टबुद्धिस्तथापि भाषान्तरलोलुपोऽहम्।
यथा सुधायाममरेषु सत्यां स्वर्गाङ्गनानामधरासवे रुचिः ।।१०.१८।।

यद्यपि मैं देववाणी में विशेष योग्यता रखता हूँ , फिर भाषान्तर का लोभ है ही।  जैसे स्वर्ग में अमृत जैसी उत्तम वस्तु विद्यमान है फिर भी देवताओं को देवांगनाओं के अधरामृत पान करने की रुचि रहती ही है।

१०.१७ भगवान् विश्वम्भर

का चिन्ता मम जीवने यदि हरिर्विश्वम्भरो गीयते
नो चेदर्भक - जीवनाय जननीस्तन्यं कथं निःसरेत्।
इत्यालोच्य मुहुर्मुहुर्यदुपते ! लक्ष्मीपते ! केवलं
त्व्रत्पा दाम्बुजसेवनेन सततं कालो मया नीयते।।१०.१७।।

यदि भगवान् विश्वम्भर कहलाते हैं तो हमें अपने जीवन सम्बन्धी झंझटों (अन्न-वस्त्र आदि) की क्या चिन्ता ? यदि वे विश्वम्भर न होते तो जन्म के पहले ही बच्चे को पीने के लिए माता के स्तन में दूध कैसे उतर आता।  बार-बार इस बात को सोचकर हे यदुपते! हे लक्ष्मीपते ! मैं केवल आप के चरण -कमलों की सेवा करके अपना समय बिताता हूँ।

१०.१६ बुद्धि और बल

बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम्।
वने सिंहो मन्दोन्मत्तः शशकेन निपातितः।।१०.१६।।

जिसके पास बुद्धि है उसी के पास बल है , जिसके पास बुद्धि ही नहीं उसके बल कहाँ से होगा।  एक जंगल में एक बुद्धिमान् खरगोश ने एक मतवाले हाथी को मार डाला था। 

१०.१५ बसेरा

एकवृक्षे समारूढा नानावर्णा विहङ्गमाः।
प्रभाते दिक्षु दशसु का तत्र परिवेदना।।१०.१५।।

विविध वर्ण (रंग) के पक्षी एक ही वृक्ष पर रातभर बसेरा करते हैं और सबेरे दशों दिशाओं में उड़ जाते हैं।  उसी दशा मनुष्यों की भी है , फिर इसके लिये सन्ताप करने की क्या जरूरत है ?

१०.१४ भक्त्त, विष्णु भगवान्, विष्णु के भक्त्त और तीनों भुवन

माता च कमला देवी पिता देवो जनार्दनः।
बान्धवा विष्णुभक्त्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्।।१०.१४।।

भक्त्त मनुष्य की माता हैं लक्ष्मीजी , विष्णु भगवान् पिता हैं , विष्णु के भक्त्त भाई-बन्धु हैं और तीनों भुवन उसका देश है।

१०.१३ ब्राह्मण वृक्ष

 विप्रो वृक्षस्तस्य मुलं च सन्ध्या वेदाः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम्।
तस्मात् मुलं यत्नतो रक्षणीयम् छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्।।१०.१३।।

ब्राह्मण वृक्ष के समान है , उसकी जड़ है सन्ध्या , वेद है शाखा और कर्म पत्ते हैं।  इसलिए मूल (सन्धा) की यत्न पूर्वक रक्षा करो।  क्योंकि जब जड़ ही कट जायेगी तो न शाखा रहेगी और न पत्र ही रहेगा।

१०.१२ अपनी बिरादरी

 वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं द्रुमालयं पक्वफलाम्बुसेवनम्।
तृणेषु शय्या शतजिर्णबल्कलं न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम्।।१०.१२।।

बाघ और बड़े - बड़े हाथियों के झुण्ड जिस वन में रहते हों उसमें रहना पड़े , निवास करके पके फल तथा जल पर जीवन -यापन करना पड़ जाय , घास - फूस पर सोना पड़े और सैकड़ों जगह फटे बल्कल वस्त्र पहनना पड़े तो अच्छा पर अपनी बिरादरी में दरिद्र होकर जीवन बिताना अच्छा नहीं है।

१०.११ ब्राह्मण से द्वेष

आत्पद्वेषाद् भवेन्मृत्युः परद्वेषाद् धनक्षयः।
राजद्वेषाद् भवेन्नाशो ब्रह्मद्वेषात कुलक्षयः।।१०.११।।

बड़े - बूढ़ों से द्वेष करने पर मृत्यु होती है।  शत्रु से द्वेष करने पर धन का नाश होता है।  राजा से द्वेष करने पर सर्वनाश हो जाता है और ब्राह्मण से द्वेष करने पर कुल का ही क्षय हो जाता है।

१०.१० दुर्जन को सज्जन

दुर्जनं सज्जनं कर्तुमुपायो न हि भूलते।
अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत्।।१०.१०।।

इस पृथ्वीतल में दुर्जन को सज्जन बनाने का कोई यत्न है ही नहीं।  अपान प्रदेश को चाहे सैकड़ों बार क्यों न धोया जाय फिर भी वह श्रेष्ठ इन्द्रिय नहीं हो सकता।

१०.९ बुद्धि

यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति।।१०.९।।

जिसके पास स्वयं बुद्धि नहीं है , उसे क्या शास्त्र सिखा देगा ?
जिसकी दोनों आँखें फूट गई हों , क्या उसे शीशा दिखा देगा ?

१०.८ अन्तरात्मा में तत्व

अन्तःसारविहीनानामुपदेशो न जायते।
मलयाचलसंसर्गान्न वेणुश्चन्दनायते।।१०.८।।

जिनकी अन्तरात्मा में कुछ तत्व नहीं होता ऐसे मनुष्यों को किसी का उपदेश कुछ भी असर नहीं करता।  मलयाचल के संसर्ग से और वृक्ष चन्दन हो जाते हैं , पर बाँस चन्दन नहीं होता।

१०.७ पृथ्वी के बोझ

येषां न विद्या न तपो न दानं न चाऽपि शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्तिं।।१०.७।।

जिस मनुष्य में न विद्या है , न  तप  है , न शील है और न गुण है ऐसे मनुष्य पृथ्वी के बोझ रूप होकर मनुष्य रूप में पशु सदृश जीवन यापन करते हैं।  

१०.६ शत्रु

लुब्धानां याचकः शत्रुः मुर्खाणां बोधको रिपुः।
जारस्त्रीणां पतिः शत्रुश्चौराणां चन्द्रमा रिपुः।।१०.६।।

लोभी का शत्रु है याचक , मूर्ख का शत्रु है उपदेश देने वाला , कुलटा स्त्री का शत्रु है उसका पति और चोरों का शत्रु चन्द्रमा है।

१०.५ विधाता

रंङकं करोति राजानं राजानं रंङकमेव च।
धनिनं निर्धनं चैव निर्धनं धनिनं विधिः।।१०.५।।

विधाता कंङगाल को राजा , राजा को कंङगाल , धनी को निर्धन और निर्धन को धनी बनाता ही रहता है।

१०.४ कवि, स्त्रियाँ, शराबी और कौवे

कवयः किं न पश्यन्ति किं न कुर्वन्ति योषितः।
मद्यपा किं न जल्पन्ति किं न खादन्ति वायसाः।।१०.४।।

कवि क्या वस्तु नहीं देख पाते ? स्त्रियाँ क्या नहीं कर सकतीं , शराबी क्या नहीं बक जाते ? और कौवे क्या नहीं खा जाते ?

१०.३ सुखार्थी को विद्या और विद्यार्थी को सुख

सुखार्थी चेत् त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी चेत् त्यजेत्सुखम्।
सुखार्थिनः कुतो विद्या सुखं विद्यार्थिनः कुतः ?।।१०.३।।

जो मनुष्य विषय सुख चाहता हो , वह विद्या के पास न जाय।  जो विद्या का इच्छुक हो , वह विषय सुख छोड़े।  सुखार्थी को विद्या और विद्यार्थी को सुख कहाँ मिल सकता है ?

१०.२ बात और मन

दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम्।
शास्त्रपूतं वदेद् वाक्यं मनः पूतं समाचरेत्।।१०.२।।

आँख से अच्छी तरह देख - भाल कर पैर धरें , कपड़े से छानकर जल पियें , शास्त्रसम्मत बात कहें और मन को हमेशा पवित्र रखें।

१०.१ विद्यारूपी रत्न

धनहीनो न हीनश्च धनिकः स सुनिश्चयः।
विद्यारत्नेन हीनो यः स हीनः सर्ववस्तुषु।।१०.१।।

धनहीन मनुष्य हीन नहीं कहा जा सकता, वही वास्तव में धनी है।  किन्तु जो मनुष्य विद्यारूपी रत्न से हीन है , वह सभी वस्तुओं से हीन है।

रविवार, 20 मार्च 2016

९.१४ धैर्य और शील

दरिद्रता धीरतया विराजते कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते।
कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीलतया विराजते।।९.१४।।

धैर्य से दरिद्रता को , सफाई से खराब वस्त्र की , गर्मी से कदन्न की और शील से कुरूपता भी सुन्दर लगती है।

९.१३ गुण दायक

इक्षुदण्डास्तिलाः शूद्राः कान्ता काञ्चनमेदिनी।
चन्दनं दधि ताम्बूलं मर्दनं गुणवर्द्धनम्।।९.१३।।

ऊँख , तिल , शुद्र , सुवर्ण , स्त्री , पृथ्वी , चन्दन , दही और पान ये वस्तुएँ जितनी मर्दन की जाती हैं , उतनी ही गुण दायक होती हैं।

९.१२ श्री नष्ट

स्वहस्तग्रंथिता माला स्वहस्तात् धृष्टचन्दनम्।
स्वहस्तलिखितं स्तोत्रं शक्रस्यापि श्रियं हरेत्।।९.१२।।

अपने हाथ गूँथकर पहनी माला , अपने हाथ से घिस कर लगाया चन्दन और अपने हाथ से लिखा हुआ स्तोत्र - पाठ  इन्द्र की भी श्री को नष्ट कर देता है।

९.११ कथा

प्रातर्द्युतप्रसङ्गेन मध्याह्ने स्त्रीप्रसङ्गतः।
रात्रौ चौरप्रसङ्गेन कालो गच्छति धीमताम्।।९.११।।

समझदार लोगों का समय सबेरे जुए के प्रसंग (कथा ) में , दोपहर को स्त्री प्रसंग (कथा) में और रात को चोर की चर्चा में जाता है।  यह तो हुआ शब्दार्थ , पर भावार्थ इसका यह है कि , जो समझदार होते हैं , वे सबेरे वह कथा कहते - सुनते हैं कि जिसमें जुए की कथा आती है यानी महाभारत। दोपहर को स्त्री प्रसंग यानी स्त्री से सम्बन्ध करने वाली कथा अर्थात् रामायण की , जिसमें आदि से अंत तक सीता की तपस्या झलकती है।  रात को चोर के प्रसंग अर्थात् श्रीकृष्णचन्द्र की कथा यानी श्रीमद्भागवत कहते - सुनते  हैं।

९.१० आडम्बर

निर्विषेणापि सर्पेण कर्तव्या महती फणा।
विषमस्तु न चाप्यस्तु घटाटोपो भयङ्करः।।९.१०।।

विष विहीन सर्प को भी चाहिये कि वह खूब लम्बी -चौड़ी फन फटकारे।  विष हो या न हो , पर आडम्बर होना ही चाहिये।

९.९ उसके रुष्ट होने से क्या होगा ?

यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैव धनागमः।
निग्रहोऽनुग्रहो नास्ति स रुष्टः किं करिष्यति।।९.९।।

जिसके नाराज होने पर कोई डर नहीं है , प्रसन्न होने पर कुछ आमदनी नहीं हो सकती।  न वह दे सकता और न कृपा ही कर सकता हो , तो उसके रुष्ट होने से क्या होगा ?

९.८ विषहीन साँप के समान ब्राह्मण

अर्थाधीताश्च यैर्वेदास्तथा शुद्रान्नभोजिनः।
ते द्विजाः किं करिष्यन्ति निर्विषा इव पन्नगाः।।९.८।।

जिन्होंने धन के लिए विद्या पढ़ी है और शूद्र का अन्न खाते हैं , ऐसे विषहीन साँप के समान ब्राह्मण क्या
कर सकेंगे।

९.७ ये सात सोते हों तो इन्हें न जगावें

अहिं नृपं च शार्दूलं बरटीं बालकं तथा।
परश्वानं च मूर्खं च सप्त सुप्तान्न बोधयेत्।।९.७।।

साँप , राजा , शेर , बार्रे , बालक , पराया कुत्ता और मूर्ख मनुष्य ये सात सोते हों तो इन्हें न जगावें।

९.६ इन सात सोते हुए को जगा देना चाहिए

विद्यार्थी सेवकः पान्थः क्षुधार्तो भयकातरः।
भाण्डारी प्रतिहारी च सप्त सुप्तान् प्रबोधयेत्।।९.६।।

विद्यार्थी , नौकर , राही , भूखे , भयभीत , भण्डारी और द्वारपाल इन सात सोते हुए को भी जगा देना चाहिए।

९.५ सूर्य , चन्द्रमा का ग्रहण - समय

दूतो न सञ्चरति खे न चलेच्च वार्त्ता पूर्वं न जल्पितमिदं न च सङ्गमोऽस्ति।
व्योम्नि स्थितं रविशशिग्रहणं प्रशस्तं जानाति यो द्विजवरः स कथं न विद्वान्।।९.५।।

आकाश में न कोई दूत जा सकता है , न बातचीत ही हो सकती है , न पहले से किसी ने बता रखा है , न किसी से भेंट ही होती है , ऐसी परिस्थिति में आकाशचारी सूर्य , चन्द्रमा का ग्रहण - समय जो पण्डित जानते हैं , वे क्यों कर विद्वान् न माने जायँ ?

९.४ प्रधान

सर्वौषधीनाममृतं प्रधानं सर्वेषु सौख्येष्वशनं प्रधानम्।
सर्वेन्द्रियाणां नयनं प्रधानं सर्वेषु गोत्रेषु शिरः प्रधानम्।।९.४।।

सब औषधियों में अमृत (गुरुच - गिलोय) प्रधान  है , सब सुखों में भोजन प्रधान है , सब इन्द्रियों में नेत्र प्रधान सब अङ्गों में मस्तक प्रधान है।

९.३ विधाता ने बनाया ही नहीं

गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदण्डे नाऽकारि पुष्पं खलु चन्दनस्य।
विद्वान् धनी भूपतिदीर्घजीवी धातुः पुरा कोऽपि न बुद्धिदोऽभूत्।।९.३।।

सोने में सुगंध , ऊँख में फल , चन्दन में फूल , धनी को विद्वान् और दीर्घजीवी राजा को विधाता ने बनाया ही नहीं।  क्या किसी ने उन्हें सलाह भी नहीं दी ?

९.२ आपस के भेद की बात

परस्परस्य मर्माणि ये भाषन्ते नराधमाः।
त एव विलयं यान्ति वल्मीकोदरसर्पवत्।।९.२।।

जो लोग आपस के भेद की बात बतला देते हैं वे नराधम उसी तरह नष्ट हो जाते हैं , जैसे बाँबी के भीतर घुसा साँप।

९.१ यदि तुम मुक्त्ति चाहते हो

मुक्त्तिमिच्छसि चेत्तात ! विषयान् विषवत् त्यज।
क्षमाऽऽर्जवं दया शौचं सत्यं पीयूषवत् पिब।।९.१।।

हे भाई ! यदि तुम मुक्त्ति चाहते हो तो विषयों को विष के समान समझ कर त्याग दो और क्षमा , ऋजुता  (कोमलता) , दया और पवित्रता इनको अमृत की तरह पी जाओ।

८.२३ यज्ञ

अन्नहीनो देहद्राष्ट्रं मन्त्रहीनश्र्च ऋत्विजः।
यजमानं दानहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः।।८.२३।।

अन्नरहित यज्ञ देश का , मन्त्रहीन यज्ञ ऋषियों का और दान विहीन यज्ञ यजमान का नाश कर देता है।  यज्ञ के समान कोई शत्रु नहीं है।

८.२२ पृथ्वी पर बोझ

मांसभक्षैः सुरापानैः मूर्खैश्चाऽक्षरवर्जितैः।
पशुभिः पुरुषकारैर्भाराक्रान्ताऽस्ति मेदिनी।।२२।।

मांसाहारी , शराबी और निरक्षर मूर्ख इन मानवरूप धारी पशुओं से पृथ्वी मारे बोझ के दबी जा रही है।

 

८.२१ विद्याहीन

रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसम्भवाः।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः।।८.२१।।

रूप यौवन युक्त्त और विशाल कुल में उत्पन्न होकर भी मनुष्य यदि विद्याहीन होते हैं तो वे उसी तरह भले नहीं मालूम होते जैसे सुगन्धि रहित टेसू के फूल।

८.२० विद्या

विद्वान् प्रशस्यते लोके विद्वान् सर्वत्र गौरवम्।
विद्यया लभते सर्वं विद्या सर्वत्र पूज्यते।।८.२०।।

विद्वान् का संसार में प्रचार होता है , वह सर्वत्र आदर पाता है।  कहने का मतलब यह है कि विद्या से सब कुछ प्राप्त हो सकता है और सर्वत्र विद्या ही पूजी जाती है।

८.१९ विद्वान्

किं कुलेन विशालेन विद्याहीनेन देहिनाम्।
दुष्कुलं चापि विदुषो देवैरपि हि पूज्यते।।८.१९।।

यदि मूर्ख का कुल बड़ा भी हो तो उससे क्या लाभ ? चाहे नीच ही कुल का क्यों न हो , पर यदि वह विद्वान् हो तो देवताओं द्वारा भी पूजा जाता है।

८.१८ ये स्त्रियाँ निकृष्ट मानी गयी हैं

असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः सन्तुष्टाश्च महीभृतः।
सलज्जा गणिका नष्टा निर्लज्जाश्च कुलाङ्गनाः।।८.१८।।

असन्तोषी ब्राह्मण , सन्तोषी राजा , लज्जावती वेश्या और निर्लज्ज कुल स्त्रियाँ ये निकृष्ट मानी गयी हैं।

८.१७ ये पवित्र माने गये हैं।

शुद्धं भूमिगतं तोयं शुद्धा नारी पतिव्रता।
शुचिः क्षेमकरो राजा सन्तोषी ब्राह्मणः शुचिः।।८.१७।।

जमीन पर पहुँचा पानी , पतिव्रता स्त्री, प्रजा का कल्याण करने वाला राजा और सन्तोषी ब्राह्मण - ये पवित्र माने गये हैं।

८.१६ रूप, कुल, विद्या और धन

निर्गुणस्य हतं रूपं दुःशीलस्य हतं कुलम्।
असिद्धस्य हता विद्या ह्यभागेन हतं धनम्।।८.१६।।

गुण विहीन मनुष्य का रूप व्यर्थ है , जिसका शील ठीक नहीं उसका कुल नष्ट है , जिसको सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकी उसकी विद्या व्यर्थ है और जिसका भोग न किया जाय वह धन व्यर्थ है।

८.१५ गुण , शील , सिद्धि और भोग

गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम्।
सिद्धिर्भूषयते विद्यां भोगो भूषयते धनम्।।८.१५।।

गुण रूप का श्रृङ्गार है , शील कुलका भूषण है , सिद्धि विद्या का अलंकार है और भोग धन का आभूषण है।

८.१४ क्रोध, तृष्णा, विद्या और सन्तोष

क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी।
विद्या कामदुघा धेनुः सन्तोषो नन्दनं वनम्।।८.१४।।

क्रोध यमराज है , तृष्णा वैतरणी नदी है , विद्या कामधेनु गौ है और सन्तोष नन्दन वन है।

८.१३ शान्ति, सन्तोष और दया

शान्तितुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषात्परं सुखम्।
न तृष्णया परो व्याधिर्न च धर्मो दया परः।।८.१३।।

शान्ति के समान कोई तप नहीं , सन्तोष से बढ़कर कोई सुख नहीं है और दया से बड़ा कोई धर्म नहीं है।

८.१२ सिद्धि प्राप्त होना

काष्ठ - पाषाण - धातूनां कृत्वा भावेन सेवनम्।
श्रध्दया च तया सिद्धिस्तस्य विष्णोः प्रसादतः।।८.१२।।

काठ , पाषाण  तथा धातु की भी श्रद्धापूर्वक सेवा करने से और भगवत्कृपा से सिद्धि प्राप्त हो जाती है।
 

८.११ भाव ही सबका कारण है

न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये।
भावे हि विद्यते देवस्तस्माभ्दावो हि कारणम्।।८.११।।

देवता न काठ में , न पत्थर में  और न मिट्टी ही में रहते हैं , वे तो रहते हैं भाव में , इससे यह निष्कर्ष निकला कि भाव ही सबका कारण है।

८.१० भाव ही प्रधान है

अग्निहोत्रं विना वेदाः न च दानं विना क्रियाः।
न भावेन विना सिद्धिस्तस्माभ्दावो हि कारणम्।।८.१०।।

बिना अग्निहोत्र के वेदपाठ व्यर्थ है और दान के बिना यज्ञादि कर्म व्यर्थ है।  भाव के बिना सिद्धि नहीं प्राप्त होती , इसलिए भाव ही प्रधान है।

८.९ पुरुषों के लिए अभाग्य की बात

वृद्धकाले मृता भार्या बन्धुहस्ते गतं धनम्।
भोजनं च पराधीनं त्रयः पुंसां विडम्बनाः।।८.९।।

बुढ़ौती में स्त्री का मरना , निजी धन का बन्धुओं के हाथ में चला जाना और पराधीन जीविका रहना ये पुरुषों के लिए अभाग्य की बात है।

८.८ व्यर्थ

हतं ज्ञानं क्रियाहीन हतश्चाऽज्ञानतो नरः।
हतं निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष्टा ह्यभर्तृकाः।।८.८।।

वह ज्ञान व्यर्थ है कि जिसके अनुसार आचरण न हो और उस मनुष्य का जीवन ही व्यर्थ है कि जिसे ज्ञान प्राप्त न हो।  जिस सेना का कोई सेनापति न हो वह सेना व्यर्थ है और जिसके पति न हो वे स्त्रियाँ व्यर्थ है।

८.७ भोजन और पीया हुआ पानी

अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम्।
भोजने चाऽमृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदम्।।८.७।।

जब तक कि भोजन पच न जाय , इस बीच में पीया हुआ पानी विष है , और वही पानी भोजन पच जाने के बाद पीने से अमृत के समान हो जाता है।  भोजन करते समय जल अमृत के समान हो जाता है।  भोजन करते समय जल अमृत और उसके पश्चात् विष का काम करता है।  

८.६ चाण्डाल

तैलाभ्यङ्गे चिताधूमे मैथुने क्षौरकर्मणि।
तावद् भवति चाण्डालो यावत् स्नानं न चाचरेत्।।८.६।।

तेल लगाने पर , स्त्री प्रसंग करने के बाद और चिता का धुआँ लग जाने पर मनुष्य जब तक स्नान नहीं करता तब तक चाण्डाल रहता है।

८.५ यवन से बढ़कर नीच

चाण्डालालां सहस्त्रैश्च सुरिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।
एको हि यवनः प्रोक्त्तो न नीचो यवनात्परः।।८.५।।

तत्वदर्शी विद्वानों की राय है कि , सहस्त्रों चाण्डालों के इतना नीच एक यवन होता है।  यवन से बढ़कर नीच कोई नहीं होता है।

८. ४ गुणियों को धन दो

वित्तं देहि गुणान्वितेषु मतिमन्नाऽन्यत्र देहे क्वचित्  प्राप्तं वरिनिधेर्जलं धनमुचां मधुर्ययुक्त्तं सदा। 
जीवाः स्थावरजङ्गमाश्च सकलान् संजीव्य भूमण्डलं भूयः पश्यति देवकोटिगुणितं गच्छेत्तमम्भोनिधिम् ।।८. ४।।

हे मतिमान् ! गुणियों को धन दो , औरों को कभी मत दो।  समुद्र से मेघ के मुख में प्राप्त होकर जल सदा मधुर हो जाता है और पृथ्वी पर चर - अचर सब जीवों को जिला कर फिर वही जल कोटि गुण होकर उसी समुद्र में चला जाता है।

शनिवार, 19 मार्च 2016

८.३ सत्य है

दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।
यदन्नं भक्ष्यते नित्यं जायते ताद्वशी प्रजा।।८.३।।

दीपक अन्धकार को खाता है और काजल को जन्माता है।  सत्य है , जो जैसा अन्न सदा खाता है उसकी वैसे ही सन्तति होती है।

८.२ भोजन

इक्षुरापः पयो मूलं ताम्बूलं फलमौषधम्। 
भक्षयित्वाऽपि कर्तव्याः स्नान - दानादिकाः क्रियाः।।८.२।।

ऊख , जल , दूध , पान , फल - मूल , औषधि इन वस्तुओं के भोजन करने पर भी स्नान , दान  आदि क्रिया कर सकते हैं।  

८.१ महात्माओं का धन

अधमा धनमिच्छन्ती धनं मानं च मध्यमाः।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम।।८.१।।

अधम धन चाहते हैं , मध्यम धन और मान दोनों पर उत्तम मान ही चाहते हैं।  क्योंकि महात्माओं का धन मान ही है।

७.२१ देह में आत्मा

पुष्पे गन्धं दिले तैलं काष्ठे वह्निं पयो घृतम्।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्याऽऽत्मानं विवेकतः।।७.२१।।

हमे देह में आत्मा को उसी विचार से देखना  चाहिए जिस प्रकार
  1. फूल में गन्ध ,
  2. तिल में तेल ,
  3. काष्ठ में आग ,
  4. दूध में घी और 
  5. ईख में गुड़ 
विद्यमान है। 

७.२० परमार्थियो की शुद्धि

वाचां शौचं च मनसः शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
सर्वभूते दया शौचमेतच्छौचं परार्थिनाम्।।७.२०।।

ये परमार्थियो की शुद्धि है
  1. वचन की शुद्धि ,
  2. मन की शुद्धि ,
  3. इन्द्रियों का संयम ,
  4. जीवों पर दया और 
  5. पवित्रता। 

७.१९ कुत्ते की पूँछ के समान विद्या

श्वानपुच्छमिव व्यर्थं जीवितं विद्यया विना।
न गुह्यगोपने शक्तं न च दंशनिवारणे।।७.१९।।

कुत्ते की पूँछ के समान विद्या बिना जीना व्यर्थ है। कुत्ते की पूँछ गोप्य इंद्रियको ढाँक नहीं सकती और न मच्छर आदि जीवों को उड़ा सकती है।

७.१८ कपोल का मोती

गम्यते यदि मृगेन्द्रमन्दिरं लभ्यते करिकपोलमौक्तिकम्।
जम्बुकालयगते च प्राप्यते वत्सपुच्छ - खरचर्म - खण्डनम्।।७.१८।।

यदि कोई सिंह की गुफा में जा पड़े तो उसको  हाथी के कपोल का मोती मिलता है। और सियार के स्थान में जाने पर बछड़े की पूँछ और गदहे के चमड़े का टुकड़ा मिलता है।

७.१७ नरकवासियों के चिन्ह

अत्यन्तकोपः कटुता च वाणी दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।
नीचप्रसङग कुलहीनसेवा चिन्हानि देहे नरकस्थितानाम्।।७.१७।।

दिये गये चिन्ह नरकवासियों की देहों में रहते हैं
  1. अत्यन्त क्रोध ,
  2. कटुवचन ,
  3. दरिद्रता ,
  4. अपने जनों में बैर ,
  5. नीच का संग और 
  6. कुलहीन की सेवा। 

७.१६ स्वर्ग से अवतरित होने वाले जन

स्वर्गस्थितानामिह जीवलोके चत्वारि चिन्हानि वसन्ती देहे।
दानप्रसङ्गो मधुरा च वाणी देवार्चनं ब्राह्मणतर्पणं च।।७.१६।।

स्वर्ग से अवतरित होने वाले जनो के शरीर में चार चिन्ह रहते है
  1. दान का स्वाभाव ,
  2. मीठा वचन ,
  3. देवता की पूजा और 
  4. ब्राह्मण को तृप्त करना। 
अर्थात् जिन लोगों में दान आदि लक्षण रहे उनको जानना चाहिये कि वे अपने पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग वासी मृत्यु लोक में अवतार लिये हैं।

७.१५ चार बातें ध्यान करने वाली

यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः।
यस्यार्थाः स पुमाँल्लोके यस्यार्थाः स च जीवति।।७.१५।।

ये चार बातें ध्यान करने वाली है
  1. जिसके पास धन रहता है उसके मित्र होते हैं। 
  2. जिसके पास अर्थ रहता है उसी के बन्धु होते हैं। 
  3. जिनके पास धन रहता है वही पुरुष गिना जाता हैं। 
  4. जिसके पास अर्थ रहता है वही जीता है।

७.१४ व्यय करना ही रक्षा है

उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्।
तडागोदरसंस्थानां परीस्त्रव इवाम्भसाम्।।७.१४।।

अर्जित धन का व्यय करना ही रक्षा है , जैसे नये जल आने पर तड़ाग के जल को निकालना ही रक्षा है।

७.१३ मनुष्य को हंस के समान न होना चाहिये

यत्रोदकस्तत्र वसन्ती हंसा स्तथैव शुष्कं परिवर्जयन्ति।
न हंसतुल्येन नरेण भाव्यं पुनस्त्यजन्तः पुनराश्रयन्तः।।७.१३।।

जहाँ जल रहता है वहाँ ही हंस बसते हैं।  वैसे ही सूखे  सरोवर को छोड़ते हैं और बार बार आश्रय कर लेते हैं।  अतः मनुष्य को हंस के समान न होना चाहिये।

७.१२ सीधे वृक्ष काट लिये जाते हैं

नाऽत्यन्तं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम्।
छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः।।७.१२।।

अधिक सीधा - साधा होना भी अच्छा नहीं होता। जाकर वन में देखो वहाँ सीधे वृक्ष काट लिये जाते हैं और टेढ़े खड़े रह जाते हैं।

७.११ राजा, ब्राह्मण और स्त्रियों के बल

बाहुवीर्यबलं राज्ञो ब्राह्मणो ब्रह्मविद् बली।
रूप - यौवन - माधुर्यं स्त्रीणां बलमनुत्तमम्।।७.११।।

यह इन लोगों के बल हैं
  1. राजाओं में बाहुबल सम्पन्न राजा ,
  2. ब्राह्मणो में ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण बली होता है, और
  3. स्त्रियों में रूप तथा यौवन की मधुरता।

७.१० शत्रु को इस प्रकार नीचा दिखाना चाहिये

अनुलोमेन बलिनं प्रतिलोमेन दुर्जनम्।
आत्मतुल्यबलं शत्रुः विनयेन बलेन वा।।७.१०।।

इनको इस प्रकार नीचा दिखाना चाहिये
  1. अपने से प्रबल शत्रु को  उसके अनुकूल चल कर ,
  2. दुष्ट शत्रु को उससे प्रतिकूल चल कर और 
  3. समान बलवाले शत्रु को विनय और बल से।

७.९ प्रसन्नता

तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा घनगर्जिते।
साधवः परसम्पत्तौ खलाः परविपत्तिषु।।७.९।।

  1. ब्राह्मण भोजन से ,
  2. मोर मेघ के गर्जन से ,
  3. सज्जन पराये धन से  और 
  4. खल मनुष्य दुसरे पर आई विपत्ति से 
प्रसन्न होते हैं।  

७.८ सुधारने का तरीका

हस्ती अंकुशमात्रेण बाजी हस्तेन ताड्यते।
शृङ्गी लकृतहस्तेन खड्गहस्तेन दुर्जनः।।७.८।।

  1. हाथी अंकुश से ,
  2. घोड़ा चाबुक से ,
  3. सींगवाले जानवर लाठी से और 
  4. दुर्जन तलवार से
ठीक होते हैं।  


७.६ इनको कभी भी पैरों से न छुए

पादाभ्यां न स्पृशेदग्निं गुरुं ब्राह्मणमेव च।
नैव गां च कुमारीं च वृद्धं न शिशुं तथा।।७.६।।

इनको कभी भी पैरों से न छुए
  1. अग्नि 
  2. गुरु 
  3. ब्राह्मण 
  4. गौ 
  5. कुमारी कन्या 
  6. वृद्ध 
  7. बालक।

७.५ इनके बीच में से नहीं निकलना चाहिये

विप्रयोर्विप्रवह्नेश्च दम्पत्योः स्वामिभृत्ययोः।
अन्तरेण न गन्तव्यं हलस्य वृषभस्य च।।७.५।।

इनके बीच में से नहीं निकलना चाहिये
  1. दो ब्राह्मणो के बीच में से 
  2. ब्राह्मण और अग्नि के बीच से 
  3. स्वामी और सेवक के बीच से 
  4. स्त्री - पुरुष के बीच से 
  5. हल - तथा बैल के बीच से।

७.४ तीन बात

सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने।
त्रिषु चैव न कर्त्तव्योऽध्ययने जपदानयोः।।७.४।।

इन तीन बातों में सन्तोष धारण करना चाहिए
  1. अपनी स्त्री में 
  2. भोजन में 
  3. धन में। 
इन तीन बातों में कभी भी सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए
  1. अध्ययन में 
  2. जप में 
  3. दान में।

७.३ सन्तोषरूपी अमृत

सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तिरेव च।
न च तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम्।।७.३।।

सन्तोषरूपी अमृत से तृप्त मनुष्यों को जो सुख और शांति प्राप्त होती है वह धन के लोभ से इधर - उधर मारे - मारे फिरने वालों को कैसे प्राप्त होगी ?

७.२ वही सुखी रहता है

धनधान्यप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणेषु च।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्।।७.२।।

इन कामों में जो मनुष्य लज्जा नहीं करता वही सुखी रहता है
  1. धन - धान्य के लेन देन 
  2. विद्याध्ययन 
  3. भोजन और 
  4. सांसारिक व्यवसाय। 

७.१ किसी के समक्ष जाहिर नहीं करना चाहिए

अर्थनाशं मनस्तापं गृहिणीचरितानि च।
नीचवाक्यं चाऽपमानं मतिमान्न प्रकाशयेत्।।७.१।।

इन बातों को बुद्धिमान मनुष्य को किसी के समक्ष जाहिर नहीं करना चाहिए
  1. अपने धन का नाश 
  2. मन का सन्ताप 
  3. स्त्री का चरित्र 
  4. नीच मनुष्य की कही बात और 
  5. अपना अपमान  

गुरुवार, 17 मार्च 2016

६.१५ - ६.२२ बीस गुण

सिंहादेकं वकादेकं शिक्षेच्चत्वारि  कुक्कुटात्।
वायसात् पञ्च शिक्षेच्च षट् शुनस्त्रीणि  गर्दभात्।।६.१५।।

सिंह से एक गुण , बगुले से एक गुण , मुर्गे से चार गुण , कौऐ से पाँच गुण ,कुत्ते से छह गुण और गधे से तीन गुण ग्रहण करना चाहिए।

प्रभूतं कायमपि वा तन्नरः कर्तुमिच्छति।
सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते।।६.१६।।

मनुष्य कितना ही बड़ा काम क्यों न करना चाहता हो ,उसे चाहिए कि सारी शक्ति लगाकर वह काम करे। यह गुण उसे सिंह से सीखना चाहिये।

इन्द्रियाणि च संयम्य वकवत् पण्डितो नरः।
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत्।।६.१७।।

समझदार मनुष्य को चाहिए कि वह बगुले की तरह इन्द्रियों पर संयम रखकर देश - काल के अनुसार अपना बल देखकर सब कार्य साधे।

प्रत्युत्थानं च युद्धं च संविभागं च बन्धुषु।
स्वयमाक्रम्य भुक्त्तं च शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्।।६.१८।।

ठीक समय से जागना , लड़ना , बन्धुओं के हिस्से का बॅटवारा और छीन - झपट कर भोजन कर लेना ये चार बातें मुर्गे से सीखें।

 गूढमैथिुनचारित्रं काले काले च संग्रहम्।
अप्रमत्तमविश्वासं पञ्च शिक्षेच्च वायसात्।।६.१९।।

एकान्त में स्त्री का संग करना , समय-समय पर कुछ संग्रह करते रहना , हमेशा चौकन्ना रहना और किसी पर विश्वास न करना , ढीठ रहना , ये पाँच गुण कौए से सीखना चाहिए।

बह्वाशी स्वल्पसन्तुष्टः सनिद्रो लघुचेतनः।
स्वामिभक्तश्च शूरश्च षडेते श्वानतो गुणाः।।६.२०।।

 अधिक भूख रहते भी थोड़े में सन्तुष्ट रहना , सोते समय होश ठीक रखना , हल्की नींद सोना , स्वामिभक्ति और बहादुरी - ये गुण कुत्ते से सीखना चाहिये।

सुश्रान्तोऽपि वहेत् भारं शीतोष्णं न च पश्यति।
सन्तुष्टश्चरते नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात्।।६.२१।।

भरपूर थकावट रहने पर भी बोझा ढोना , सर्दी - गर्मी की परवाह न करना , सदा  सन्तोष रखकर जीवन - यापन करना - ये तीन गुण गधे से सीखना चाहिए।

एतान् विंशतिगुणानाचरिष्यति मानवः।
कार्यावस्थासु सर्वासु अजेयः स भविष्यति।।६.२२।।

जो मनुष्य ऊपर गिनाये बीसों गुणों को अपना लेगा और उसके अनुसार चलेगा , वह सभी कार्य में अजेय रहेगा।
 

६.१४ दुष्ट

कुराजराज्येन कुतः प्रजासुखं कुमित्रमित्रेण कुतोऽभिनिर्वृतिः।
कुदारदारैश्च कुतो गृहे रतिः कुशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः।।६.१४।।

दुष्ट राजा के राज्य में प्रजा को सुख कैसे मिल सकता है ?
दुष्ट मित्र से भला हृदय कब आनन्दित हो सकता है ?
दुष्ट स्त्री के रहने पर घर कैसे अच्छा लगेगा ?
दुष्ट शिष्य को पढ़ाकर यश कैसे प्राप्त हो सकता है ?  

६.१३ न हो तो अच्छा

वरं न राज्यं न कुराजराज्यं वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम्।
वरं न शिष्यो न कुशिष्यशिष्यो वरं न दारा न कुदारदाराः।।६.१३।।

राज्य ही न हो तो अच्छा, पर कुराज्य अच्छा नही।
मित्र ही न हो तो अच्छा, पर कुमित्र होना अच्छा नहीं।
शिष्य ही न हो तो अच्छा, पर कुशिष्य होना अच्छा नहीं।
स्त्री न हो तो ठीक है, पर दुष्ट स्त्री होना अच्छा नहीं ।

६.१२ इनको इस तरह वश में करें

लुब्धमर्थेन गृह्णीयात् स्तब्धमञ्जलिकर्मणा।
मूर्खं छन्दानुवृत्त्या च यथार्थत्वेन पण्डितम्।।६.१२।।

इनको इस तरह वश में करें
  1. लालची को धनसे ,
  2. घमण्डी को हाथ जोड़कर ,
  3. मुर्ख को उसके मनवाली करके और 
  4. पण्डित को यथार्थ बात से।

६.११ ये मानव जाति के शत्रु हैं

ऋणकर्ता पिता शत्रुर्माता च व्यभिचारिणी।
भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः।।६.११।।

ये मानव जाति के शत्रु हैं
  1. ऋण करने वाला पिता ,
  2. व्यभिचारिणी माता ,
  3. रूपवती स्त्री और 
  4. मूर्ख पुत्र।  

६.१० ये इनके पाप को भोगते हैं

राजा राष्ट्रकृतं पापं राज्ञः पापं पुरोहितः।
भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्यपापं गुरुस्तथा।।६.१०।।

ये इनके पाप को भोगते हैं
  1. राज्य के पाप को राजा ,
  2. राजा का पाप पुरोहित ,
  3. स्त्री का पाप पति और 
  4. शिष्य का पाप गुरु।

६.९ स्वयं

स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते।
स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद् विमुच्यते।।६.९।।

जीव स्वयं कर्म करता है और स्वयं उसका शुभाशुभ फल भोगता है। वह स्वयं संसार में चक्कर खाता है और  समय पाकर स्वयं छुटकारा भी पा जाता है।

६.८ स्वार्थी मनुष्य

नैव पश्यति जन्मान्धः कामान्धो नैव पश्यति।
मदोन्मत्ता न पश्यन्ति अर्थी दाषं न पश्यति।।६.८।।

न जन्म का अन्धा देखता है, न कामान्ध कुछ देख पाता है और न उन्मत्त पुरुष ही कुछ देख पाता है।  उसी तरह स्वार्थी मनुष्य किसी बात में दोष नहीं देख पाता।

६.७ काल को कोई टाल नहीं सकता

कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः।
कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः।।६.७।।

काल सभी प्राणियों को खा जाता है।  काल प्रजा का संहार करता है।  वह लोगों के सो जाने पर भी वह जागता रहता है। तात्पर्य यह कि काल को कोई टाल नहीं सकता।

६.६ कार्य और सहायक

यादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायोऽपि तादृशः।
सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता।।६.६।।

जिस तरह की बुद्धि होती है, वैसा ही कार्य होता है और जैसा होनहार होता है सहायक भी उसी प्रकार के मिल जाते हैं।  

६.५ धन

यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः।
यस्यार्थाः स पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः।।६.५।।

जिसके पास धन है उसके बहुत से मित्र हैं।
जिसके पास धन है उसके बहुत से बान्धव  हैं।
जिसके पास धन है वही संसार का श्रेष्ठ पुरुष है।
जिसके पास धन है वही पण्डित है।

६.४ भ्रमण करने वाला

भ्रमन्सम्पूज्यते राजा भ्रमन्सम्पूज्यते द्विजः।
भ्रमन्संपूज्यते योगी स्त्री भ्रमन्ती विनश्यति।।६.४।।

भ्रमण करने वाला राजा पूजा जाता है। भ्रमण करने वाला ब्राह्मण भी  पूजा जाता है। भ्रमण करता  हुआ योगी  पूजा जाता है। पर भ्रमण करने वाली स्त्री नष्ट हो जाती  है।

६.३ शुद्ध

भस्मना शुध्यते कांस्यं ताम्रमम्लेन शुध्यति।
रजसा शुध्यते नारी नदी वेगेन शुध्यति।।६.३।।

राख से काँसे का बर्तन साफ़ होता है। खटाई से ताँबा साफ होता है। रजोधर्म से स्त्री शुद्ध होती है। वेग से नदी शुद्ध होती है।

६.२ चाण्डाल

पक्षिणां काकचाण्डालः पशूनां चैव कुक्कुरः।
मुनीनां पापी चाण्डालः सर्वचाण्डालनिन्दकः।।६.२।।

पक्षियों में चाण्डाल कौआ है। पशुओं में चाण्डाल कुत्ता।  मुनियों में चाण्डाल है पाप और सबसे बड़ा चाण्डाल है निन्दक।

६.१ मोक्षपद को प्राप्त

श्रुत्वा धर्मं विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम्।
श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात्।।६.१।।

मनुष्य सुनकर ही धर्म का तत्त्व समझता हैं।  सुनकर ही दुर्बुद्धि को त्यागता है। सुनकर ही ज्ञान प्राप्त करता है और सुनकर ही मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है।

५.२३ माता पाँच तरह की होती हैं

राजपत्नी गुरोः पत्नी मित्र -पत्नी तथैव च।
पत्नी -माता स्वमाता च पञ्चैत मातरः स्मृताः।।५.२३।।

उसी तरह माता भी पाँच ही तरह की होती हैं।  जैसे ,
१. राजा की पत्नी ,
२. गुरु की पत्नी ,
३. मित्र की पत्नी ,
४. अपनी स्त्री की माता और
५. अपनी खास माता।

५.२२ पिता पाँच प्रकार के होते हैं

जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता पञ्चैत पितरः स्मृताः।।५.२२।।

संसार में पिता पाँच प्रकार के होते हैं।  ऐसे कि
१. जन्म देने वाला ,
२. विद्यादाता ,
३. यज्ञोपवीत आदि संस्कार करने वाला ,
४. अन्न देने वाला और
५. भय से बचाने वाला।

५.२१ ये सब धूर्त होते हैं

नराणां नापितो धूर्तः पक्षिणां चैव वायसः।
चतुष्पदां श्रृंगालस्तु स्त्रीणां धूर्ता च मालिनी।।५.२१।।

ये सब धूर्त होते हैं ,
१. मनुष्यों में नाऊ ,
२. पक्षियों में कौआ ,
३. चौपायों में स्यार और
४. स्त्रियों में मालिन।

५.२० अचल और अटल

चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणश्चले जीवितमन्दिरे।
चलाऽचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः।।५.२०।।

लक्ष्मी चंचल हैं , प्राण भी चंचल ही है , जीवन तथा घर - द्वार भी चंचल है और कहाँ तक कहें यह सारा संसार चंचल है , बस धर्म केवल अचल और अटल है।

५.१९ सब कुछ सत्य में ही है

सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः।
सत्येन वाति वायुश्च सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम्।।५.१९।।

सत्य के आधार पर पृथ्वी रुकी है।  सत्य के सहारे सूर्य भगवान् संसार को गर्मी पहुँचाते हैं।  सत्य के ही बल पर वायु बहता है।  कहने का मतलब यह कि सब कुछ सत्य में ही है।

५.१८ धन, वाणी, स्वर्ग और मोक्ष

अधना धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदाः।
मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्ति देवताः।।५.१८।।

दरिद्र मनुष्य धन चाहते हैं।  चौपाये वाणी चाहते हैं।  मनुष्य स्वर्ग चाहते हैं और देवता लोग मोक्ष चाहते हैं।

५.१७ मेघ, आत्मबल, नेत्र और अन्न

नास्ति मेघसमं तोयं नास्ति चात्मसमं बलम्।
नास्ति चक्षुः समं तेजो नास्ति धान्यसमं प्रियम्।।५.१७।।

मेघ जल के समान उत्तम और कोई जल नहीं होता।
आत्मबल के समान और कोई बल नहीं है।
नेत्र के समान और किसी में तेज नहीं है। और
अन्न के समान प्रिय कोई वस्तु नहीं है।

५.१६ व्यर्थ है

वृथा वृष्टिः समद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्।
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवाऽपि च।।५.१६।।

समुद्र में वर्षा व्यर्थ है।
तृप्त को भोजन व्यर्थ है।
धनाढ्य को दान देना व्यर्थ है।  और
दिन के समय दीपक जलाना व्यर्थ है।

५.१५ मित्र

विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च।।५.१५।।

परदेश में विद्या मित्र है।
घर में स्त्री मित्र है। 
रोगी को औषधि मित्र है। और
मरे हुए मनुष्य का धर्म मित्र है।

५.१४ तृण के समान

तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गस्तृणं शूरस्य जीवितम्।
जिताक्षस्य तृणं नारी निःस्पृहस्य तृणं जगत् ।।५.१४।।

ब्रह्मज्ञानी के लिये स्वर्ग तिनके समान है। 
बहादुर के लिए जीवन तृण के समान है। 
जितेन्द्रिय को नारी और निस्पृह के लिए सारा संसार तृण के समान है।

५.१३ संसार के मनुष्य

जन्ममृत्युं हि यात्पेको भुनक्त्येकः शुभाऽशुभम्।
नरकेषु पतत्येक एको याति परां गतिम्।।५.१३।।

संसार के मनुष्यों में - से
एक मनुष्य जन्म - मरण के चक्कर में पड़ता है ,
एक अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है ,
एक नरक  जा गिरता है  और
एक परम पद को प्राप्त कर लेता है।

५.१२ के समान कोई

नास्ति कामसमो व्याधिर्नास्ति मोहसनो रिपुः।
नास्ति कोपसमो वह्निर्नास्ति ज्ञानात् परं सुखम्।।५.१२।।

काम के समान कोई रोग नहीं है ,
मोह (अज्ञान ) के समान कोई शत्रु नहीं है ,
क्रोध के समान और कोई अग्नि नहीं है  और
ज्ञान से बढ़कर और कोई सुख नहीं है।

५.११ नष्ट कर देता

दरिद्र्यनाशनं दानं शीलं दुर्गतिनाशनम्।
अज्ञाननाशिनी प्रज्ञा भावना भयनाशिनी।।५.११।।

दान से दरिद्रता नष्ट होती है ,
शील दुरवस्था को नष्ट कर देती है ,
बुद्धि अज्ञानता को नष्ट कर देती है , और
विचार भय को नष्ट कर देता है।

५.१० व्यर्थ कष्ट

अन्यथा वेदपाण्डित्यं शास्त्रमाचारमन्यथा।
अन्यथा वदता शान्तं लोकाः क्लिश्यन्ति चाऽन्यथा।।५.१०।।

वेद को , पाण्डित्य को , शास्त्र को , सदाचार को और शान्त मनुष्य को जो लोग बदनाम करना चाहते हैं , वे व्यर्थ कष्ट करते हैं।  

५.९ रक्षा

वित्तेन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृदुना रक्ष्यते भूपः सत् - स्त्रिया रक्ष्यते गृहम्।।५.९।।

धन से धर्म की ,
योग से विद्या की ,
कोमलता से राजा की और
अच्छी स्त्री से  घर की रक्षा होती है।

५.८ अभ्यास और शील

अभ्यासाद्धार्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते।
गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण गम्यते।।५.८।।

अभ्यास से विद्या की और शील से कुल की रक्षा होती है।
गुणों से मनुष्य को पहिचान जाता है , और
आँखें देखने से क्रोध का पता लग जाता है।

५.७ आलस, पराये हाथ, बीज में कमी और सेनापति विहीन सेना

आलस्योपगता विद्या परहस्तगतं धनम्।
अल्पबीजं हतं क्षेत्रं हतं सैन्यमनायकम्।।५.७।।

आलस से विद्या ,
पराये हाथ में गया धन ,
बीज में कमी करने से खेती और
सेनापति विहीन सेना नष्ट हो जाती है।

५.६ शत्रु

मुर्खाणां पण्डिता द्वेष्या अधनानां महाधनाः।
वाराङ्गना कुलस्त्रीणां शुभगानां च दुर्भगा।।५.६।।

मूर्खों के पण्डित शत्रु होते हैं।
दरिद्रों के शत्रु धनी होते हैं।
कुलवती स्त्रियों की शत्रु वेश्यायें होती हैं। और
सुन्दर मनुष्यों के शत्रु कुरूप होते हैं।

५.५ नहीं हो सकता

निःस्पृहो नाधिकारी स्यान्नाकामो मण्डनप्रियः।
नाऽविदग्धः प्रियं ब्रूयात् स्पष्टवक्त्ता न वञ्चकः।।५.५।।

निस्पृह मनुष्य कभी अधिकारी नहीं हो सकता।
वासना से शून्य मनुष्य श्रिङ्गार का प्रेमी नहीं हो सकता।
जड़ मनुष्य कभी मीठी वाणी नहीं बोल सकता और
साफ़ - साफ़ बात करने वाला धोखेबाज नहीं होता।  

५.४ शील एक सा नहीं हो जाता

एकोदरसमुद्भूता एकनक्षत्रजातकाः।
न भवन्ति समाः शीला यथा बदरिकण्टकाः।।५.४।।

एक पेट से और एक ही नक्षत्र में उत्पन्न होने से किसी का शील एक सा नहीं हो जाता।  उदाहरण - स्वरूप बेर के काँटों को देखो।

५.३ भय

तावद्भयेन भेतव्यं यावद् भयमनागतम्।
आगतं तु भयं वीक्ष्य प्रहर्तव्यमशङ्कया।।५.३।।

भय से तभी तक डरो , जब तक कि वह तुम्हारे पास तक न आ जाय। 
और जब आ ही जाय तो डरो नहीं बल्कि उसे निर्भीक भाव से मार भगाने की कोशिश करो।

५.२ मनुष्य की परीक्षा

यथा चतुर्भिःकनकं परीक्ष्यते निघर्षणं छेदनतापताडनैः।
तथा चतुर्भिः पुरुषं परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।।५.२।।

जैसे रगड़ने से , काटने  से , तपाने से और पीटने से , इन चार उपायों से सुवर्ण की परीक्षा की जाती है , उसी प्रकार त्याग , शील , गुण और कर्म इन चार बातों से मनुष्य की परीक्षा होती है।

५.१ गुरु

गुरुरग्रिर्द्विजातीनां  वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः।
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरुः।।५.१।।

ब्राह्मण  , क्षत्रिय  तथा वैश्य इन तीनों का गुरु अग्नि है। उपर्युक्त्त चारों वर्णों का गुरु ब्राह्मण है , स्त्री का गुरु उसका पति है और संसार मात्र का गुरु अतिथि है।

बुधवार, 16 मार्च 2016

४.१९ देवता

अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्।
प्रतिमा त्वल्पबुद्धिनां सर्वत्र समदर्शिनाम्।।४.१९।।

द्विजातियों के लिए अग्नि देवता हैं। मुनियों का हृदय ही देवता है। साधारण बुद्धिवालों के लिए प्रतिमायें ही देवता हैं और समदर्शी के लिये पूरा संसार देवमय है।

४.१८ इन बातों को बार - बार सोचते रहना चाहिये

कः कालः कानि मित्राणि को देशः कौ व्ययागमौ।
कस्याऽडं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः।।४.१८।।

यह कैसा समय है ?
मेरे कौन - कौन मित्र हैं ?
यह कैसा देश है ?
इस समय हमारी क्या आमदनी और क्या खर्च है ?
मै किसके अधीन हूँ ? और
मुझमे कितनी शक्ति है  ?
इन बातों को बार - बार सोचते रहना चाहिये।  

४.१७ बुढापा

अध्वा जरा मनुष्याणां वाजिनां बन्धनं जरा।
अमैथुनं जरा स्त्रीणां वस्त्राणामातपं जरा।।४.१७।।

मनुष्यों के लिए रास्ता चलना बुढ़ापा है।
घोड़े के लिए बन्धन बुढ़ापा है।
स्त्रियों के लिए मैथुन का आभाव बुढ़ापा है।
वस्त्रों के लिए घाम बुढापा है।

४.१६ त्याग दें

त्यजेर्द्धर्मं दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत्।
त्यजेत्क्रोधमुखं भार्यां निःस्नेहान् बान्धवांस्त्यजेत्।।४.१६।।

जिस धर्म में दया का उपदेश न हो , वह धर्म त्याग दें।
जिस गुरु में विद्या न हो , उसे त्याग दे।
हमेशा नाराज रहने वाली स्त्री को त्याग दें।  और
स्नेहविहीन भाई -बन्धुओं को त्याग देना चाहिये।

४.१५ विष है

अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम्।
दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरुणी विषम्।।४.१५।।

अनभ्यस्त शास्त्र विष के समान रहता है। 
अजीर्ण अवस्था में फिर से भोजन करना विष है।
दरिद्र के लिए सभा विष है।  और
बूढ़े पुरुष के लिए युवती स्त्री विष है।

४.१४ सूना रहता है

अपुत्रस्य गृहं शून्यं दिशः शून्यास्त्वबान्धवाः।
मूर्खस्य हृदयं शून्यं सर्वशून्या दरिद्रता।।४.१४।।

जिसके पुत्र नहीं है , उसका घर सूना है।
जिसका कोई भाई बन्धु नहीं होता , उसके लिए दिशाएँ शून्य रहती हैं।
मूर्ख मनुष्य का हृदय शून्य रहता है।  और
दरिद्र मनुष्य के लिए सारा संसार सूना रहता है।

४.१३ भार्या (स्त्री)

सा भार्या या शुचिर्दक्षा सा भार्या या पतिव्रता।
सा भार्या या पतिप्रीता सा भार्या सत्यवादिनी।।४.१३।।

वही भार्या (स्त्री) भार्या है , जो पवित्र , काम-काज करने में निपुण , पतिव्रता , पतिपरायण और सच्ची बात करने वाली हो।

४.१२ आदमियों के संग

एकाकिना तपो द्वाभ्यां पठनं गायनं त्रिभिः।
चतुर्भिर्गमनं क्षेत्रं पञ्चभिर्बहुभी रणम्।।४.१२।।

अकेले में तपस्या , दो आदमियों से पठन ,  तीन से गायन , चार आदमियों से रास्ता , पाँच आदमियों के संग से खेती का काम और ज्यादा -से  ज्यादा मनुष्यों के समुदाय द्वारा युद्ध सम्पन्न होता है।

४.११ केवल एक ही बार

सकृज्जल्पन्ति राजनः सकृज्जल्पन्ति पण्डिताः।
सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत्सकृत्।।४.११।।

राजा लोग केवल एक बार कहते हैं , उसी प्रकार पण्डित लोग भी केवल एक ही बार बोलते हैं , (आर्यधर्मावलम्बियों के यहाँ ) केवल एक ही बार कन्या दी जाती है , ये तीन बातें केवल एक ही बार होती हैं।

४.१० विश्राम स्थल

संसार तापदाग्धानां त्रयो विश्रान्तिहेतवः।
अपत्यं च कलत्रं च सतां सङ्गतिरेव च।।४.१०।।

सांसारिक ताप से जलते हुए लोगों के तीन ही विश्राम स्थल हैं।
पुत्र , स्त्री और सज्जनों का संग।

४.९ उस पुत्र से क्या लाभ

किं तया क्रियते धेन्वा या न दोग्ध्री न गर्भिणी।
कोऽर्थ्र: पुत्रेण जातेन यो न विद्वान् न भक्त्तिमान।।४.९।।  

ऐसी गाय से क्या लाभ जो न दूध देती हो और न गाभिन हो।  उसी प्रकार उस पुत्र से क्या लाभ जो न विद्वान् हो और न भक्त्तिमान् ही होवे।  

४.८ शरीर को भून डालते हैं

कुग्रामवासः कुलहीनसेवा कुभोजनं क्रोधमुखी च भार्या।
पुत्रश्च मूर्खा विधवाच कन्या विनाऽग्निमेते प्रदहन्ति कायम्।।४.८।।

खराब गाँव का निवास , नीच कुलवाले प्रभु की सेवा , ख़राब भोजन , कर्कशा स्त्री , मूर्ख पुत्र और विधवा पुत्री , ये छह बिना आग के ही प्राणी के शरीर को भून डालते हैं।  

४.७ मूर्ख पुत्र

मूर्खश्चिरायुर्जातोऽपि तस्माज्जातमृतोऽपरः।
मृतः स चाऽल्पदुःखाय यावज्जीवं जडो दहेत्।।४.७।।

मूर्ख पुत्र का चिरंजीवी होकर जीना अच्छा नहीं है।  बल्कि उससे वह पुत्र अच्छा है , जो पैदा होते ही मर जाय।  क्योंकि मरा पुत्र थोड़े दुःख का कारण होता है , पर जीवित मूर्ख पुत्र जन्मभर जलाता ही रहता है।  

४.६ एक गुणवान् पुत्र

एकोऽपि गुणवान् पुत्रो निर्गुणैश्च शतैर्वरः।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च ताराः सहस्त्रशः।।४.६।। 

एक गुणवान् पुत्र सैकड़ों गुणहीन पुत्रों से अच्छा है।  अकेला चन्द्रमा अन्धकार को दूर कर देता है , पर हजारों तारे मिलकर भी उसे नहीं दूर कर पाते।