सोमवार, 21 मार्च 2016

११.१८ आत्म - कल्याण

देयं भोज्यधनं धनं सुकृतिभिर्नो संचंयस्तस्य वै
श्रीकर्णस्य बलेश्च विक्रमपतेरद्यापि कीर्तिः स्थिता।
अस्माकं मधुदानभोगरहितं नष्टं चिरात् सञ्चितं
निर्वाणादिति नष्टपादयुगलं घर्षन्त्यहो मक्षिकाः।।११.१८।।

आत्म - कल्याण की भावनावालों को चाहिये कि अपनी साधारण आवश्यकता से अधिक बचा हुआ अन्न , वस्त्र या धन दान कर दिया करे, जोड़ें नहीं।  दान की ही बदौलत कर्ण , बलि और महाराज विक्रमादित्य की कीर्ति आज भी विद्यमान है।  मधुमक्खियों को देखिये , वे यही सोचती हुई अपने पैर रगड़ती हैं कि 'हाय ! मैंने दान और भोग से रहित मधु को बहुत दिनों में इकठ्ठा किया और वह क्षण भर में दूसरा ले गया '।

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