गुरुवार, 24 मार्च 2016

१२.२३ अवस्था के ढल जाने पर

वयसः परिणामेऽपि यः खलः खल एव सः।
संपक्वमपि माधुर्य नोपयातीन्द्रवारुणम्।।१२.२३।।

अवस्था के ढल जाने पर भी जो खल है वस्तुतः वह खल ही बना रहता है , क्योंकि अच्छी तरह पका हुआ भी इन्द्रायन मीठापन को नहीं प्राप्त होता।  

१२.२२ एक - एक बूँद

जलबिन्दुनीपातेन क्रमशः पुर्यते घटः।
स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।।१२.२२।।

धीरे - धीरे एक - एक  बूँद पानी से घड़ा भर जाता है।  यही बात विद्या , धर्म और धन के लिए लागू होती है।  तात्पर्य यह कि , उपर्युक्त्त वस्तुओं के संग्रह में जल्दी न करो।  करता चले , धीरे - धीरे कभी पूरा हो ही जायेगा।

१२.२१ सुखी रहना

धनधान्यप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणे तथा।
आहारे व्यवहारे च त्यक्त्तलज्जः सुखी भवेत्।।१२.२१।।

जो मनुष्य धन तथा धान्य के व्यवहार में, पढ़ने - लिखने में , भोजन में और लेन - देन में निर्लज्ज होता है , वही सुखी रहता है।

 

१२.२० चिन्ता धर्म की

नाऽऽहारं चिन्तयेत् प्राज्ञो धर्ममेकं हि चिन्तयेत्।
आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते।।१२.२०।।

विद्वान् को चाहिए कि , वह भोजन की चिन्ता न किया करे।  चिन्ता करे केवल धर्म की , क्योंकि आहार तो मनुष्य के पैदा होने के साथ ही नियत हो जाया करता है।  

१२.१९ देखते - देखते चौपट हो जाना

अनालोच्य व्ययं कर्ता अनाथः कलहप्रियः।
आतुरः सर्वक्षत्रेषु नरः शीघ्रं विनश्यति।।१२.१९।।

बिना समझे - बूझे खर्च करने वाला , अनाथ , झगड़ालू और सब तरह की स्त्रियों के लिए बेचैन रहने वाला मनुष्य देखते - देखते चौपट हो जाता है।
 

१२.१८ चार चीज़ें

 विनयं राजपुत्रेभ्यः पण्डितेभ्यः सुभाषितम्।
अनृतं द्यूतकारेभ्यः स्त्रीभ्यः शिक्षेत् कैतवम्।।१२.१८।।

मनुष्य को चाहिए कि , विनय ( तहजीब ) राजकुमारों से , अच्छी - अच्छी बातें पण्डितों से , झुठाई  जुआरियों से  और छल - कपट  स्त्रियों से सीखे।

१२.१७ चार चीज़ें हित करने वाली

विद्या मित्रं प्रवासे च भार्या मित्रं गृहेषु च।
व्यधितस्यौषधं मित्रं धर्मों मित्रं मृतस्य च।।१२.१७।।

प्रवास में विद्या हित करती है , घर में स्त्री मित्र है , रोगग्रस्त पुरुष का हित औषधि होता है और धर्म मरे का उपकार करता है।

१२.१६ तुलना

काष्ठं कल्पतरुः सुमेरुरचलश्चिन्तामणी प्रस्तरः
सुर्यस्तीव्रकरः शशी क्षयकरः क्षारो हि वारां निधिः।
कामो नष्टतनुर्बलिदितिसुतो नित्यं पशुः कामगौ-
र्नैतांस्ते  तुलयामि भो रघुपते कस्योपमा दीयते।।१२.१६।। 

कल्पवृक्ष काष्ठ है , सुमेरु अचल है , चिन्तामणि पत्थर है , सूर्य की किरणें तीखी हैं , चन्द्रमा घटता - बढ़ता  है , समुद्र खारा है , कामदेव शरीर रहित है , बलि दैत्य है और कामधेनु पशु है।  इसलिए इनके साथ तो मैं आपकी तुलना नहीं कर सकता।  तब हे रघुपते ! किसके साथ आपकी उपमा दी जाय ? 

१२.१५ वसिष्ठजी श्रीरामचन्द्रजी से कहते हैं

धर्मे तत्परता मुखे मधुरता दाने समुत्साहता
मित्रेऽवञ्चकता गुरौ विनयता चित्तेऽतिगम्भीरता।
आचारे शुचिता गुणे रसिकता शास्त्रेषु विज्ञातृता
रुपे सुन्दरता शिवे भजनता त्वय्यस्ति भो राघवा।।१२.१५।।

वसिष्ठजी श्रीरामचन्द्रजी से कहते हैं - हे राघव ! धर्म में तत्परता , मुख में मधुरता , दान  में उत्साह , मित्रों में निश्छल व्यवहार , गुरुजनों के समक्ष नम्रता , चित्त में गम्भीरता , आचार में पवित्रता , शास्त्रों में विज्ञता , रूप में सुन्दरता और शिवजी में भक्त्ति ये गुण केवल आप ही में है।  

१२.१४ पण्डित

मातृवत्परदारेषु परद्रव्याणि लोष्टवत्।
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स पण्डितः।।१२.१४।।

जो मनुष्य परायी स्त्री को माता के समान समझता , पराया धन मिट्टी के ढेले के समान मानता और अपने ही तरह सब प्राणियों के सुख - दुःख  समझता है वही पण्डित है।