रविवार, 20 मार्च 2016

९.१४ धैर्य और शील

दरिद्रता धीरतया विराजते कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते।
कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीलतया विराजते।।९.१४।।

धैर्य से दरिद्रता को , सफाई से खराब वस्त्र की , गर्मी से कदन्न की और शील से कुरूपता भी सुन्दर लगती है।

९.१३ गुण दायक

इक्षुदण्डास्तिलाः शूद्राः कान्ता काञ्चनमेदिनी।
चन्दनं दधि ताम्बूलं मर्दनं गुणवर्द्धनम्।।९.१३।।

ऊँख , तिल , शुद्र , सुवर्ण , स्त्री , पृथ्वी , चन्दन , दही और पान ये वस्तुएँ जितनी मर्दन की जाती हैं , उतनी ही गुण दायक होती हैं।

९.१२ श्री नष्ट

स्वहस्तग्रंथिता माला स्वहस्तात् धृष्टचन्दनम्।
स्वहस्तलिखितं स्तोत्रं शक्रस्यापि श्रियं हरेत्।।९.१२।।

अपने हाथ गूँथकर पहनी माला , अपने हाथ से घिस कर लगाया चन्दन और अपने हाथ से लिखा हुआ स्तोत्र - पाठ  इन्द्र की भी श्री को नष्ट कर देता है।

९.११ कथा

प्रातर्द्युतप्रसङ्गेन मध्याह्ने स्त्रीप्रसङ्गतः।
रात्रौ चौरप्रसङ्गेन कालो गच्छति धीमताम्।।९.११।।

समझदार लोगों का समय सबेरे जुए के प्रसंग (कथा ) में , दोपहर को स्त्री प्रसंग (कथा) में और रात को चोर की चर्चा में जाता है।  यह तो हुआ शब्दार्थ , पर भावार्थ इसका यह है कि , जो समझदार होते हैं , वे सबेरे वह कथा कहते - सुनते हैं कि जिसमें जुए की कथा आती है यानी महाभारत। दोपहर को स्त्री प्रसंग यानी स्त्री से सम्बन्ध करने वाली कथा अर्थात् रामायण की , जिसमें आदि से अंत तक सीता की तपस्या झलकती है।  रात को चोर के प्रसंग अर्थात् श्रीकृष्णचन्द्र की कथा यानी श्रीमद्भागवत कहते - सुनते  हैं।

९.१० आडम्बर

निर्विषेणापि सर्पेण कर्तव्या महती फणा।
विषमस्तु न चाप्यस्तु घटाटोपो भयङ्करः।।९.१०।।

विष विहीन सर्प को भी चाहिये कि वह खूब लम्बी -चौड़ी फन फटकारे।  विष हो या न हो , पर आडम्बर होना ही चाहिये।

९.९ उसके रुष्ट होने से क्या होगा ?

यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैव धनागमः।
निग्रहोऽनुग्रहो नास्ति स रुष्टः किं करिष्यति।।९.९।।

जिसके नाराज होने पर कोई डर नहीं है , प्रसन्न होने पर कुछ आमदनी नहीं हो सकती।  न वह दे सकता और न कृपा ही कर सकता हो , तो उसके रुष्ट होने से क्या होगा ?

९.८ विषहीन साँप के समान ब्राह्मण

अर्थाधीताश्च यैर्वेदास्तथा शुद्रान्नभोजिनः।
ते द्विजाः किं करिष्यन्ति निर्विषा इव पन्नगाः।।९.८।।

जिन्होंने धन के लिए विद्या पढ़ी है और शूद्र का अन्न खाते हैं , ऐसे विषहीन साँप के समान ब्राह्मण क्या
कर सकेंगे।

९.७ ये सात सोते हों तो इन्हें न जगावें

अहिं नृपं च शार्दूलं बरटीं बालकं तथा।
परश्वानं च मूर्खं च सप्त सुप्तान्न बोधयेत्।।९.७।।

साँप , राजा , शेर , बार्रे , बालक , पराया कुत्ता और मूर्ख मनुष्य ये सात सोते हों तो इन्हें न जगावें।

९.६ इन सात सोते हुए को जगा देना चाहिए

विद्यार्थी सेवकः पान्थः क्षुधार्तो भयकातरः।
भाण्डारी प्रतिहारी च सप्त सुप्तान् प्रबोधयेत्।।९.६।।

विद्यार्थी , नौकर , राही , भूखे , भयभीत , भण्डारी और द्वारपाल इन सात सोते हुए को भी जगा देना चाहिए।

९.५ सूर्य , चन्द्रमा का ग्रहण - समय

दूतो न सञ्चरति खे न चलेच्च वार्त्ता पूर्वं न जल्पितमिदं न च सङ्गमोऽस्ति।
व्योम्नि स्थितं रविशशिग्रहणं प्रशस्तं जानाति यो द्विजवरः स कथं न विद्वान्।।९.५।।

आकाश में न कोई दूत जा सकता है , न बातचीत ही हो सकती है , न पहले से किसी ने बता रखा है , न किसी से भेंट ही होती है , ऐसी परिस्थिति में आकाशचारी सूर्य , चन्द्रमा का ग्रहण - समय जो पण्डित जानते हैं , वे क्यों कर विद्वान् न माने जायँ ?

९.४ प्रधान

सर्वौषधीनाममृतं प्रधानं सर्वेषु सौख्येष्वशनं प्रधानम्।
सर्वेन्द्रियाणां नयनं प्रधानं सर्वेषु गोत्रेषु शिरः प्रधानम्।।९.४।।

सब औषधियों में अमृत (गुरुच - गिलोय) प्रधान  है , सब सुखों में भोजन प्रधान है , सब इन्द्रियों में नेत्र प्रधान सब अङ्गों में मस्तक प्रधान है।

९.३ विधाता ने बनाया ही नहीं

गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदण्डे नाऽकारि पुष्पं खलु चन्दनस्य।
विद्वान् धनी भूपतिदीर्घजीवी धातुः पुरा कोऽपि न बुद्धिदोऽभूत्।।९.३।।

सोने में सुगंध , ऊँख में फल , चन्दन में फूल , धनी को विद्वान् और दीर्घजीवी राजा को विधाता ने बनाया ही नहीं।  क्या किसी ने उन्हें सलाह भी नहीं दी ?

९.२ आपस के भेद की बात

परस्परस्य मर्माणि ये भाषन्ते नराधमाः।
त एव विलयं यान्ति वल्मीकोदरसर्पवत्।।९.२।।

जो लोग आपस के भेद की बात बतला देते हैं वे नराधम उसी तरह नष्ट हो जाते हैं , जैसे बाँबी के भीतर घुसा साँप।

९.१ यदि तुम मुक्त्ति चाहते हो

मुक्त्तिमिच्छसि चेत्तात ! विषयान् विषवत् त्यज।
क्षमाऽऽर्जवं दया शौचं सत्यं पीयूषवत् पिब।।९.१।।

हे भाई ! यदि तुम मुक्त्ति चाहते हो तो विषयों को विष के समान समझ कर त्याग दो और क्षमा , ऋजुता  (कोमलता) , दया और पवित्रता इनको अमृत की तरह पी जाओ।

८.२३ यज्ञ

अन्नहीनो देहद्राष्ट्रं मन्त्रहीनश्र्च ऋत्विजः।
यजमानं दानहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः।।८.२३।।

अन्नरहित यज्ञ देश का , मन्त्रहीन यज्ञ ऋषियों का और दान विहीन यज्ञ यजमान का नाश कर देता है।  यज्ञ के समान कोई शत्रु नहीं है।

८.२२ पृथ्वी पर बोझ

मांसभक्षैः सुरापानैः मूर्खैश्चाऽक्षरवर्जितैः।
पशुभिः पुरुषकारैर्भाराक्रान्ताऽस्ति मेदिनी।।२२।।

मांसाहारी , शराबी और निरक्षर मूर्ख इन मानवरूप धारी पशुओं से पृथ्वी मारे बोझ के दबी जा रही है।

 

८.२१ विद्याहीन

रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसम्भवाः।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः।।८.२१।।

रूप यौवन युक्त्त और विशाल कुल में उत्पन्न होकर भी मनुष्य यदि विद्याहीन होते हैं तो वे उसी तरह भले नहीं मालूम होते जैसे सुगन्धि रहित टेसू के फूल।

८.२० विद्या

विद्वान् प्रशस्यते लोके विद्वान् सर्वत्र गौरवम्।
विद्यया लभते सर्वं विद्या सर्वत्र पूज्यते।।८.२०।।

विद्वान् का संसार में प्रचार होता है , वह सर्वत्र आदर पाता है।  कहने का मतलब यह है कि विद्या से सब कुछ प्राप्त हो सकता है और सर्वत्र विद्या ही पूजी जाती है।

८.१९ विद्वान्

किं कुलेन विशालेन विद्याहीनेन देहिनाम्।
दुष्कुलं चापि विदुषो देवैरपि हि पूज्यते।।८.१९।।

यदि मूर्ख का कुल बड़ा भी हो तो उससे क्या लाभ ? चाहे नीच ही कुल का क्यों न हो , पर यदि वह विद्वान् हो तो देवताओं द्वारा भी पूजा जाता है।

८.१८ ये स्त्रियाँ निकृष्ट मानी गयी हैं

असन्तुष्टा द्विजा नष्टाः सन्तुष्टाश्च महीभृतः।
सलज्जा गणिका नष्टा निर्लज्जाश्च कुलाङ्गनाः।।८.१८।।

असन्तोषी ब्राह्मण , सन्तोषी राजा , लज्जावती वेश्या और निर्लज्ज कुल स्त्रियाँ ये निकृष्ट मानी गयी हैं।

८.१७ ये पवित्र माने गये हैं।

शुद्धं भूमिगतं तोयं शुद्धा नारी पतिव्रता।
शुचिः क्षेमकरो राजा सन्तोषी ब्राह्मणः शुचिः।।८.१७।।

जमीन पर पहुँचा पानी , पतिव्रता स्त्री, प्रजा का कल्याण करने वाला राजा और सन्तोषी ब्राह्मण - ये पवित्र माने गये हैं।

८.१६ रूप, कुल, विद्या और धन

निर्गुणस्य हतं रूपं दुःशीलस्य हतं कुलम्।
असिद्धस्य हता विद्या ह्यभागेन हतं धनम्।।८.१६।।

गुण विहीन मनुष्य का रूप व्यर्थ है , जिसका शील ठीक नहीं उसका कुल नष्ट है , जिसको सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकी उसकी विद्या व्यर्थ है और जिसका भोग न किया जाय वह धन व्यर्थ है।

८.१५ गुण , शील , सिद्धि और भोग

गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम्।
सिद्धिर्भूषयते विद्यां भोगो भूषयते धनम्।।८.१५।।

गुण रूप का श्रृङ्गार है , शील कुलका भूषण है , सिद्धि विद्या का अलंकार है और भोग धन का आभूषण है।

८.१४ क्रोध, तृष्णा, विद्या और सन्तोष

क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी।
विद्या कामदुघा धेनुः सन्तोषो नन्दनं वनम्।।८.१४।।

क्रोध यमराज है , तृष्णा वैतरणी नदी है , विद्या कामधेनु गौ है और सन्तोष नन्दन वन है।

८.१३ शान्ति, सन्तोष और दया

शान्तितुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषात्परं सुखम्।
न तृष्णया परो व्याधिर्न च धर्मो दया परः।।८.१३।।

शान्ति के समान कोई तप नहीं , सन्तोष से बढ़कर कोई सुख नहीं है और दया से बड़ा कोई धर्म नहीं है।

८.१२ सिद्धि प्राप्त होना

काष्ठ - पाषाण - धातूनां कृत्वा भावेन सेवनम्।
श्रध्दया च तया सिद्धिस्तस्य विष्णोः प्रसादतः।।८.१२।।

काठ , पाषाण  तथा धातु की भी श्रद्धापूर्वक सेवा करने से और भगवत्कृपा से सिद्धि प्राप्त हो जाती है।
 

८.११ भाव ही सबका कारण है

न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये।
भावे हि विद्यते देवस्तस्माभ्दावो हि कारणम्।।८.११।।

देवता न काठ में , न पत्थर में  और न मिट्टी ही में रहते हैं , वे तो रहते हैं भाव में , इससे यह निष्कर्ष निकला कि भाव ही सबका कारण है।

८.१० भाव ही प्रधान है

अग्निहोत्रं विना वेदाः न च दानं विना क्रियाः।
न भावेन विना सिद्धिस्तस्माभ्दावो हि कारणम्।।८.१०।।

बिना अग्निहोत्र के वेदपाठ व्यर्थ है और दान के बिना यज्ञादि कर्म व्यर्थ है।  भाव के बिना सिद्धि नहीं प्राप्त होती , इसलिए भाव ही प्रधान है।

८.९ पुरुषों के लिए अभाग्य की बात

वृद्धकाले मृता भार्या बन्धुहस्ते गतं धनम्।
भोजनं च पराधीनं त्रयः पुंसां विडम्बनाः।।८.९।।

बुढ़ौती में स्त्री का मरना , निजी धन का बन्धुओं के हाथ में चला जाना और पराधीन जीविका रहना ये पुरुषों के लिए अभाग्य की बात है।

८.८ व्यर्थ

हतं ज्ञानं क्रियाहीन हतश्चाऽज्ञानतो नरः।
हतं निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष्टा ह्यभर्तृकाः।।८.८।।

वह ज्ञान व्यर्थ है कि जिसके अनुसार आचरण न हो और उस मनुष्य का जीवन ही व्यर्थ है कि जिसे ज्ञान प्राप्त न हो।  जिस सेना का कोई सेनापति न हो वह सेना व्यर्थ है और जिसके पति न हो वे स्त्रियाँ व्यर्थ है।

८.७ भोजन और पीया हुआ पानी

अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम्।
भोजने चाऽमृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदम्।।८.७।।

जब तक कि भोजन पच न जाय , इस बीच में पीया हुआ पानी विष है , और वही पानी भोजन पच जाने के बाद पीने से अमृत के समान हो जाता है।  भोजन करते समय जल अमृत के समान हो जाता है।  भोजन करते समय जल अमृत और उसके पश्चात् विष का काम करता है।  

८.६ चाण्डाल

तैलाभ्यङ्गे चिताधूमे मैथुने क्षौरकर्मणि।
तावद् भवति चाण्डालो यावत् स्नानं न चाचरेत्।।८.६।।

तेल लगाने पर , स्त्री प्रसंग करने के बाद और चिता का धुआँ लग जाने पर मनुष्य जब तक स्नान नहीं करता तब तक चाण्डाल रहता है।

८.५ यवन से बढ़कर नीच

चाण्डालालां सहस्त्रैश्च सुरिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।
एको हि यवनः प्रोक्त्तो न नीचो यवनात्परः।।८.५।।

तत्वदर्शी विद्वानों की राय है कि , सहस्त्रों चाण्डालों के इतना नीच एक यवन होता है।  यवन से बढ़कर नीच कोई नहीं होता है।

८. ४ गुणियों को धन दो

वित्तं देहि गुणान्वितेषु मतिमन्नाऽन्यत्र देहे क्वचित्  प्राप्तं वरिनिधेर्जलं धनमुचां मधुर्ययुक्त्तं सदा। 
जीवाः स्थावरजङ्गमाश्च सकलान् संजीव्य भूमण्डलं भूयः पश्यति देवकोटिगुणितं गच्छेत्तमम्भोनिधिम् ।।८. ४।।

हे मतिमान् ! गुणियों को धन दो , औरों को कभी मत दो।  समुद्र से मेघ के मुख में प्राप्त होकर जल सदा मधुर हो जाता है और पृथ्वी पर चर - अचर सब जीवों को जिला कर फिर वही जल कोटि गुण होकर उसी समुद्र में चला जाता है।