रविवार, 27 मार्च 2016

१७.२२ अनर्थ का कारण

यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकिता।
एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ।।१७.२२।।

जवानी , धन की अधिकता , प्रभुता एवं अविवेक।  इनमे से एक भी अनर्थ का कारण होता है।  लेकिन जिनमे ये चारों हो उनका क्या कहना।

१७.२१ एक भी उज्ज्वलगुण

व्यालाश्रयाऽपि  विफलाऽपि सकण्टकाऽपि वक्राऽपि पङ्कसहिताऽपि दुरासदाऽपि।
गन्धेन बन्धुरसि केतकि सर्वजन्तो रेको गुणः खलु निहन्ति समस्तदोषान्।।१७.२१।।

कवि अन्योक्ति के रूप में केतकी (केवड़ा ) से कहता है - केतकी ! यद्यपि तू साँपों का घर है , तेरे में काँटे भी बहुत होते हैं , तू टेढ़ी - मेढ़ी भी है , तेरे में कीचड़ भी होता है और तू मिलती भी मुश्किल से है फिर भी तेरे में सुगन्ध है ,उसी सुगन्ध की बदौलत तू सबको प्रिय है।

कहने का तात्पर्य यह है कि , मनुष्य में चाहे कितने ही अवगुण हों पर यदि एक भी उज्ज्वलगुण उसके पास रहता है तो उसके सब दोष छूमन्तर हो जाते हैं।
 

१७.२० वृद्धा और यौवन

अधः पश्यसि किं वृद्धे पतितं तव किं भुवि।।
रे रे मुर्ख ! न जानासि गतं तारुण्यमौक्तिकम्।।१७.२०।। 

हे वृद्धे ! तुम नीचे क्या देखती हो ? क्या पृथ्वी पर तुम्हारी कोई वस्तु गिर पड़ी है ? वृद्धा उत्तर देती है - मेरा यौवनरूपी मोती खो गया है , इसलिए मैं कमर झुका कर उसे ही देख रही हूँ।


१७.१९ ये आठ प्राणी दूसरे के दुःख नहीं समझते

राजा वेश्या यमश्चाऽग्निश्चौरो बालक - याचकौ।
परदुःखं न जानन्ति अष्टमो ग्रामकण्टकः।।१७.१९।।

राजा , वेश्या , यम , अग्नि , चोर , बालक , भिखारी और ग्रामकण्टक यानी गाँववालों को दुःख देनेवाला , ये आठ प्राणी दूसरे के दुःख नहीं समझते।

 

१७.१८ मदान्ध राजा और गुणी

दानार्थिनो मधुकरा यदि कर्णतालैर्दुरीकृताः करिवरेण मदान्धबुद्धया। 
तस्यैव गण्डयुगमण्डनहानिरेषा भृङ्गाः पुनर्विकचपद्मवमे वसन्ति।।१८।।

यदि मदके मोह से पहूँचे हुए भौरों को गजराज ने अपने कानों की फड़फड़ाहट से भगा दिया तो इसमें उसीके गण्डस्थलों की शोभा नष्ट हुई। भौंरे तो वहाँ से जाकर फूले हुए कमलों के बीच में निवास करेंगे।  इसी प्रकार यदि कोई मदान्ध राजा किसी गुणी का आदर न करके उसे अपने यहाँ से निकाल देता है तो उससे उस राजा की ही हानि होती है , गुणी तो कहीं - न  - कहीं पहुँच कर अपना अड्डा जमा ही लेगा।

 

१७.१७ मनुष्य और पशु

आहार -निद्रा - भय  - मैथुनानि समानि चैतानि नृणां पशूनाम्।
ज्ञानं नराणामधिको विशेषो ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः।।१७।।

भोजन , शयन , भय और स्त्री - प्रसंग , ये बातें तो मनुष्य और पशु में समान भाव से विद्यमान रहती हैं।  मनुष्यों में केवल ज्ञान की विशेषता रहती है , वह विशेषता भी जिसमें नहीं है , उसे पशु ही समझना चाहिये।

१७.१६स्वर्ग से अधिक सुख

यदि रामा यदि च रमा यदि तनयो विनयगुणोपेतः।
तनये तनयोत्पत्तिः सुखमिन्द्रे किमाधिक्यम्।।१६।।

यदि घर में सुन्दर स्त्री है , यदि मन माफिक धन (लक्ष्मी ) मौजूद है , यदि विनय और बुद्धि से युक्त्त पुत्र घर में है और यदि पुत्र के भी पुत्र है, तो फिर स्वर्ग में इससे अधिक सुख कौन सा होगा ? 

१७.१५ परोपकार की भावना

परोपकरणं येषां जागर्ति हृदये सताम्।
नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदस्तु पदे पदे।।१७.१५।।

जिन लोगों के हृदय में परोपकार की भावना विद्यमान रहती है उनकी सब विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं और पद - पद पर सम्पत्तियाँ मिलती रहती हैं।

१७.१४ तुण्डी (कुन्दरू ), बचा , स्त्री और दूध

सद्यः प्रज्ञा हरेत्तुण्डी सद्यः प्रज्ञाकरी वचा।
सद्यः शक्त्तिहरा नारी सद्यः शक्त्तिकरः पयः।।१७.१४।।

 तुण्डी (कुन्दरू ) तुरन्त बुद्धि हर लेती है , बचा तुरन्त बुद्धि प्रदान करती है।  स्त्री तुरन्त शक्त्ति हर लेती है और दूध तुरन्त बल प्रदान करता है। 

१७.१३ शोभा नष्ट होना

नापितस्य गृहे क्षौरं पाषाणे गन्धलेपनम्।
आत्मरूपं जले पश्येत् शक्रस्यापि श्रियं हरेत्।।१७.१३।।

जो मनुष्य नाइ के घर हजामत बनवाता , स्वयं पत्थर पर चन्दन घिस कर लगाता और जल में अपनी छाया देखता है , वह यदि इन्द्र भी हो तो उसकी श्री नष्ट हो जाती है। 

१७.१२ मोक्ष और ज्ञान

दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन।
मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मण्डनेन।।१७.१२।।

हाथों की शोभा होती है दान से न कि कंकणों से।  स्नान से शरीर की शुद्धि होती है न कि चन्दनलेप से।  सज्जनों की तृप्ति सम्मान से , न कि भोजन से। मोक्ष ( मुक्त्ति ) ज्ञान से होता है न कि अच्छे वेश - भूषा और श्रृंगार से। 

१७.११ बचा हुआ जल

पादशेषं पीतशेषं सन्ध्याशेषं तथैव च।
श्वानमूत्रसमं तोयं पीत्वा चान्द्रायणं चरेत्।।१७.११।।

पैर धोने के बाद बचा हुआ जल , पीने के बाद बचा हुआ जल और सन्ध्या करने के बाद बचा हुआ जल कुत्ते के मूत्र के समान होता है।  भ्रमवश भी वह जल पी लें तो चान्द्रायण व्रत करना चाहिए।

१७.१० स्वामी के चरणोदक

न दानात् शुद्ध्यते नारी नोपवासशतैरपि।
न तीर्थसेवया तद्वद् भर्तुः पादोदकैर्यथा।।१७.१०।।

स्त्री न दान से , न सैकड़ो तरह के व्रत करने से और न तीर्थाटन करने से ही उतनी पवित्र होती है , कि जितनी स्वामी के चरणोदक से पुनीत हो जाती है।

१७.९ पति की आज्ञा के बिना व्रत

पत्युराज्ञां विना नारी उपोष्य व्रतचारिणी।
आयुष्यं हरते भुर्तः सा नारी नकरं व्रजेत्।।१७.९।।

जो स्त्री पति की आज्ञा के बिना व्रत या उपवास करती है तो वह अपने पति की आयु हरती है और अन्त में नरकगामिनी होती है।

१७.८ दुष्ट मनुष्य के सारे शरीर में विष

तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकायाः विषं मुखे।
वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वाङ्गे दुर्जने विषम्।।१७.८।।

साँप के दाँत में विष रहता है , मक्खी के मुख में और बिच्छू के पूँछ में विष रहता है और दुष्ट मनुष्य के सारे शरीर में विष रहता है।

१७.७ अन्न और जल , द्वादशी , गायत्री और माता

नाऽन्नोदकसमं दानं न तिथिर्द्वादशी समा।
न गायत्र्याः परो मन्त्रः न मातुर्दैवतं परम्।।१७.७।।

अन्न और जल के समान कोई दान नहीं होता , द्वादशी की तरह कोई तिथि नहीं होती , गायत्री से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं होता और माता से बढ़कर कोई देवता नहीं होता।  

१७.६ अशक्त्त , ब्रह्मचारी , रोगी और बूढ़ी स्त्री

अशक्तस्तु भवत्साधुर्ब्रह्मचारी च निर्धनः।
व्याधिष्ठो देवभक्तश्च वृद्धा नारी पतिव्रता।।१७.६।।

अशक्त्त साधु होता है , ब्रह्मचारी निर्धन होता है , रोगी देवता का भक्त्त होता है और बूढ़ी स्त्री पतिव्रता हुआ करती है।

१७.५ बिना दिये कुछ किसी को मिलता नहीं

पिता रत्नाकरो यस्य लक्ष्मीर्यस्य सहोदरी।
शङ्खो भिक्षाटनं कुर्यान्नादत्तमुपतिष्ठते ।।१७.५।।

जिसका बाप रत्नाकर (रत्नों का खजाना समुद्र ) और लक्ष्मी जिसकी सगी बहन है , वह शंख भी यदि भीख माँगता फिरे तो इसका यही मतलब है कि , बिना दिये कुछ किसी को मिलता नहीं।

१७.४ किसी चीज़ की आवश्यकता

लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः ?
सत्यं यत्तपसा च किं शुचिमनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना।।१७.४।।

जिसके पास में लोभ है तो फिर और अवगुण की क्या आवश्यकता ?
यदि चुगली करने की आदत है तो और पापों की क्या जरुरत ?
यदि सच्चाई है तो और तपकी क्या आवश्यकता ?
यदि मन शुद्ध है तो तीर्थ करने की क्या जरूरत ?
सज्जनता है तो और गुणों की जरूरत नहीं , यदि अपना प्रभाव है तो श्रृंगार की कोई आवश्यकता नहीं , यदि अपने पास विद्या है तो धन की कोई आवश्यकता नहीं।
और यदि अपयश विद्यमान है तो मरने की क्या जरुरत है।



१७.३ तपस्या

यद्दूरं यद्दुराराध्यं यच्च दूरैर्व्यवस्थितम्।
तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम्।।१७.३।।

दूर की वस्तु जिसके लिए कठिन आराधना की आवश्यकता पड़ती है वह तपस्या से साध्य हो सकती है। क्योंकि तपस्या सबसे प्रबल चीज होती है।

१७.२ समान व्यवहार

कृते प्रतिकृतिं कुर्यात् हिंसने प्रतिहिंसनम्।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दौष्ट्यं समाचरेत्।।१७.२।।

उपकारी के प्रति उपकार और हिंसक के प्रति हिंसा करने में कोई दोष नहीं है, दुष्ट के साथ दुष्टता ही करनी चाहिये।

१७.१ जिस पण्डित ने गुरु के पास न पढ़कर

पुस्तके प्रत्ययाधीतं नाऽधीतं गुरुसन्निधौ।
सभामध्ये न शोभन्ते जारगर्भा इव स्त्रिया।।१७.१।।

जिस पण्डित ने गुरु के पास न पढ़कर पुस्तक से ही विद्या प्राप्त कर ली है।  ऐसे लोग सभा में नहीं शोभते , जैसे व्यभिचार से गर्भवती स्त्री।

१६.२० विद्या और धन

पुस्तकेषु च या विद्या परहस्तेषु युद्धनम्।
उत्पन्नेषु च कार्येषु न सा विद्या न तद्धनम्।।२०।।

जो विद्या कण्ठ में न रहकर पुस्तक में लिखी पड़ी है , जो धन अपने हाथ में न रहकर पराये हाथ में पड़ा है , अर्थात् आवश्यकता पड़ने पर जो अपने काम नहीं आ सकता , वह विद्या न विद्या और न वह धन , धन ही है।

१६.१९ दान , अध्ययन और तप

जन्म - जन्मनि चाभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः।
तेनैवाऽभ्यासयोगेन दही वाऽभ्यस्यते पुनः।।१९।।

दान , अध्ययन और तप जन्म - जन्म के अभ्यास से होते हैं और प्राणी बार - बार इसी का अभ्यास करता रहता है।

१६.१८ कूटवृक्ष के दो अमृत फल

संसारकूटवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे।
सुभाषितं च सुस्वादः संगतिः सज्जने जने।।१८।।

इस संसार रूपी कूटवृक्ष के दो अमृत फल हैं , एक तो अच्छी - अच्छी बातें और दूसरे सज्जनों की संगति।

१६.१७ मीठी बातें

प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वं तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने किं दरिद्रता ?।।१७।।

मीठी बातें करने से सभी लोग प्रसन्न रहते हैं।  ऐसी दशा में मीठी ही बातें करनी चाहिए। बात बोलने में कौन कमी है।

१६.१६ मानभंग

वरं प्राणपरित्यागो मानभङ्गेन जीवनात्।
प्राणत्यागे क्षण दुःखं मानभङ्गे दिने दिने।।१६।।

मानभंग करके जीने की अपेक्षा मर जाना ही अच्छा है। क्योंकि प्राण त्याग का दुःख थोड़ी देर के लिए होता है और मानभंग का क्लेश तो दिनों - दिन होता रहता है।

१६.१५ याचक

तृणं लघु तृणात्तूलं तूलादपि च याचकः।
वायुना किं न नीतोऽसौ मामयं याचयिष्यति।।१५।।

सबसे हल्की चीज़ है तृण , तृण से भी हल्की है रूई , रूई से भी हल्का है याचक (माँगने वाला )। अब प्रश्न यह होता है कि , इतने हल्के जीव को वायु क्यों न उड़ा ले गया , तो कहते हैं कि , वायु नेउसे इसलिए नहीं उड़ाया कि , मेरे पास भी आकर कुछ माँग न बैठे। 

१६.१४ दान

क्षीयन्ते सर्वदानानि यज्ञ - होम - बलिक्रियाः।
न क्षीयन्ते पात्रदानमभयं यत्तु देहिनाम्।।१४।।

वैसे यज्ञ , होम  और बलिदान आदि दान समय बीतने पर नष्ट हो जाते हैं , पर सत्पात्र को दिया हुआ दान और सर्वसाधारण को दिया दान नष्ट नहीं होता।

१६.१३ धन , जीवन , स्त्री और भोजन

धने जीवितव्येषु स्त्रीषु चाहारकर्मसु।
अतृप्ताः प्राणिनः सर्वे याता यास्यन्ति यान्ति च।।१३।।

धन , जीवन , स्त्री और भोजन इन चार चीजों से संसार के सभी प्राणी हमेशा अतृप्त रहे हैं।  सब इनसे अतृप्त होकर ही चले गये , चले जायेंगे और चले जा रहे हैं।

१६.१२ धन

किं तया क्रियते लक्ष्म्या या बधूरिव केवला।
या तु वेश्येव सामान्या पथिकैरपि भुज्यते।।१२।।

उस धन से क्या हो सकता है जो बहू की तरह घर के भीतर बन्द रहे अथवा उस धन से भी कुछ नहीं हो सकता जो लावारिसी तौर से वेश्या की तरह पड़ा हो और रास्ते चलने वाले ऐरे - गैरे भी उसे भोगें।

१६.११ धन

अतिक्लेशेन ये अर्था धर्मस्याऽतिक्रमेण तु।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था न भवन्तु मे।।११।।

ज्यादा तकलीफ उठाकर , धर्म छोड़कर या शत्रु से नीचा देखकर धन प्राप्त होता हो तो, ऐसा धन मुझे नहीं चाहिए।  

१६.१० गुण

 गुणैः सर्वज्ञतुल्योऽपि सीदत्येको निराश्रयः।
अनर्घ्यमपि माणिक्यं हेमाश्रयमपेक्षते।।१०।।

कोई गुण में चाहे विष्णु भगवान् के समान ही क्यों न हो पर आश्रय के बिना अकेला रहकर भी वह दुखी ही होता है। मणि कितना ही बेशकीमती क्यों न हो , जब तक कि वह सोने के किसी जेवर में नहीं जड़ा जाता तबतक बेकार ही रहता है।  

१६.९ गुण

विवेकिनमनुप्राप्ता गुणाः यान्ति मनोज्ञताम् ।
सुतरां रत्नमाभाति चामीकरनियोजितम्।।९।।

गुण जब किसी समझदार मनुष्य के पास जाते हैं तभी सुन्दर लगते हैं।  रत्न सोने के अलंकार में जड़ दिया जाता है , तभी जँचता है।

१६.८ गुण

परमोत्कगुणो यस्तु निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽपि लघतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः।।८।।

दूसरे मनुष्य जिसके गुणों की प्रशंसा करें वह गुणहीन होता हुआ भी गुणी हो जाता है।  और अपने मुँह अपने गुणों का बखान करने से तो इन्द्र भी छोटे ही मानें जायेंगे।  

१६.७ गुण

गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते महत्योऽपि सम्पदः।
पूर्णेन्दुः किं तथा वन्द्यो किष्कलङ्को यथा कृशः।।७।।

गुण सर्वत्र पूजे जाते हैं , धन चाहे जितना हो वह सब जगह नहीं पुजायेगा।  जिस तरह कि द्वितीया के दुर्बल  चन्द्रमा की वन्दना की जाती है , उस तरह पूर्ण चन्द्रमा की वन्दना नहीं की जाती है।  

१६.६ गुण

गुणैरूत्तमतां  यान्ति नोच्चैरासनसंस्थिताः।
प्रसादशिखरस्थोऽपि किं काकः गरुडायते ? ।।६।।    

मनुष्य अपने गुणों से उत्तम बनता है , ऊँचे आसन पर बैठ जाने से नहीं।  क्या भव्य भवन के शिखर पर बैठकर कौआ कौए से गरुड़ हो जायेगा।

१६.५ विनाशकाल और बुद्धि

न निर्मिता केन न दृष्टपूर्वा न श्रूयते हेममयी कुरंगी।
तथाऽपि तृष्णा रघुनंदनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः।।५।।

न कभी किसी ने बताया , न कभी किसी के मुख से सुवर्णमय मृग होने की बात ही सुनी गयी।  फिर भी रामचन्द्रजी को लोभ हो ही गया।  जब विनाशकाल उपस्थित हो जाता है तब समझदार की भी बुद्धि उलटी हो जाती है।

 

१६.४ संसार में कौन

कोऽर्थान् प्राप्य न गर्वितोविषयिणः कस्याऽऽपदोऽस्तङ्गत्ताः
स्त्रीभिः कस्य न खण्डितं भुवि मनः को नाम राज्यप्रियः।
कः कालस्य न गोचरत्वमगमत् कोऽर्थी गतो गौरवम् ?
को वा दुर्जनदुर्गणेषु पतितः क्षेमेण यातः पथि ? ।।४।।   

धन प्राप्त कर किसको गर्व नहीं हुआ ? संसार में कौन ऐसा विषयी पुरुष है कि जिसकी विपत्तियाँ नष्ट हो गयी हैं , कौन ऐसा है जिसका मन स्त्रियों के द्वारा खण्डित न हो गया हो , कौन ऐसा है जो राजा को प्रिय है , कौन ऐसा है जो काल की दृष्टि से बच गया है , कौन ऐसा मनुष्य है जो किसी के यहाँ माँगने के लिए जाकर भी गौरव को प्राप्त हुआ हो , और कौन ऐसा है कि जो दुष्टों की दुष्टता में फँसकर भी कुशलपूर्वक दुनियाँ का रास्ता तै कर गया है?

१६.३ मूर्ख

यो मोहान्मन्यते मूढो रक्तेयं मयि कामिनी।
स तस्यां वशगो भूत्वा नृत्येत् क्रीडाशकुन्तवत्।।३।।

जो मूर्ख यह सोचता है कि , अमुक स्त्री मेरे पर मुग्ध है , वह उसके वशीभूत होकर खिलौने की चिड़िया के समान नाचता रहता है।

१६.२ स्त्रियाँ

जल्पन्ति सार्द्धमन्येन पश्यन्त्यन्यं सविभ्रमाः।
हृदये चिन्तयन्त्यन्यं न स्त्रिणामेकतो रतिः।।१६.२।।

स्त्रियाँ बातें दूसरे से करती हैं , नखड़े के साथ देखती हैं , किसी दूसरे की ओर , मन में सोचती है किसी और को , स्त्रियों का प्रेम एक जगह रहता ही नहीं है।

१६.१ बूढ़े का पश्चात्ताप

न ध्यातुं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये
स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुरधर्मोऽपि  नोपार्जितः।
नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नाऽऽलिङ्गितं
मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम्।।१६.१।।

किसी मुमूर्शु बूढ़े का पश्चात्ताप है कि , संसार के बन्धन को तोड़ने के लिये न मैंने ईश्वर के चरणों का ध्यान किया , न स्वर्ग के दरवाजे तोड़ने की सामर्थ्य रखनेवाले धर्म का ही उपार्जन किया और न कामिनी के कठोर कुच तथा जाँघ का स्वप्न में भी आलिङ्गन किया।  जीवन व्यर्थ ही चला गया।  हम अपनी माता के यौवन को काटने के लिए कुल्हाड़े ही बने और कुछ नहीं।