रविवार, 27 मार्च 2016

१६.५ विनाशकाल और बुद्धि

न निर्मिता केन न दृष्टपूर्वा न श्रूयते हेममयी कुरंगी।
तथाऽपि तृष्णा रघुनंदनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः।।५।।

न कभी किसी ने बताया , न कभी किसी के मुख से सुवर्णमय मृग होने की बात ही सुनी गयी।  फिर भी रामचन्द्रजी को लोभ हो ही गया।  जब विनाशकाल उपस्थित हो जाता है तब समझदार की भी बुद्धि उलटी हो जाती है।

 

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