व्यालाश्रयाऽपि विफलाऽपि सकण्टकाऽपि वक्राऽपि पङ्कसहिताऽपि दुरासदाऽपि।
गन्धेन बन्धुरसि केतकि सर्वजन्तो रेको गुणः खलु निहन्ति समस्तदोषान्।।१७.२१।।
कवि अन्योक्ति के रूप में केतकी (केवड़ा ) से कहता है - केतकी ! यद्यपि तू साँपों का घर है , तेरे में काँटे भी बहुत होते हैं , तू टेढ़ी - मेढ़ी भी है , तेरे में कीचड़ भी होता है और तू मिलती भी मुश्किल से है फिर भी तेरे में सुगन्ध है ,उसी सुगन्ध की बदौलत तू सबको प्रिय है।
कहने का तात्पर्य यह है कि , मनुष्य में चाहे कितने ही अवगुण हों पर यदि एक भी उज्ज्वलगुण उसके पास रहता है तो उसके सब दोष छूमन्तर हो जाते हैं।
गन्धेन बन्धुरसि केतकि सर्वजन्तो रेको गुणः खलु निहन्ति समस्तदोषान्।।१७.२१।।
कवि अन्योक्ति के रूप में केतकी (केवड़ा ) से कहता है - केतकी ! यद्यपि तू साँपों का घर है , तेरे में काँटे भी बहुत होते हैं , तू टेढ़ी - मेढ़ी भी है , तेरे में कीचड़ भी होता है और तू मिलती भी मुश्किल से है फिर भी तेरे में सुगन्ध है ,उसी सुगन्ध की बदौलत तू सबको प्रिय है।
कहने का तात्पर्य यह है कि , मनुष्य में चाहे कितने ही अवगुण हों पर यदि एक भी उज्ज्वलगुण उसके पास रहता है तो उसके सब दोष छूमन्तर हो जाते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें