मंगलवार, 22 मार्च 2016

१२.१३ मेरा उत्सव

निमन्त्रणोत्सवा विप्रा गावो नवतृणोत्सवाः।
पत्युत्साहयुता भार्या अहं कृष्णा रणोत्सवः।।१२.१३।।

ब्राह्मण का उत्सव है निमन्त्रण , गौओं का उत्सव है नई घास।  स्त्री का उत्सव है पति का आगमन , किन्तु हे कृष्ण ! मेरा उत्सव है युद्ध।

१२.१२ धर्म का संग्रह

अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः।
नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्त्तव्यो धर्मसंग्रहः।।१२.१२।।

शरीर क्षणभंगुर है , धन भी सदा रहने वाला नहीं है , मृत्यु बिल्कुल समीप विद्यमान है।  इसलिए धर्म का संग्रह करो।

१२.११ छः बान्धव

सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा।
शान्तिः पत्नी क्षमा पुत्रः षडेते मम बान्धवाः।।१२.११।।

कोई ज्ञानी किसी के प्रश्न का उत्तर देता हुआ कहता है कि , सत्य  मेरी माता है , ज्ञान पिता है , धर्म भाई है , दया मित्र है , शांति स्त्री है और क्षमा पुत्र है , ये ही मेरे छः बान्धव हैं।

१२.१० श्मशान के तुल्य

 न विप्रपादोदकपङ्कजानि न वेदशास्त्रध्वनिगर्जितानि।
स्वाहा - स्वधाकार - विवर्जितानि श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि।।१२.१०।।

जिस घर में ब्राह्मणों के पैर धुलने से कीचड़ नहीं होता , जिसके यहाँ वेद और शास्त्रों की ध्वनि का गर्जन नहीं होता और जिस घर में स्वाहा -  स्वधा का कभी उच्चारण नहीं होता , ऐसे घरों को श्मशान के तुल्य समझना चाहिए।

१२.९ सज्जन के उत्तर

विप्राऽस्मिन्नगरे महान् कथय कस्तालद्रुमाणांगणः
को दाता रजको ददाति वसनं प्रातर्गृहीत्वा निशि।
को दक्षः परवित्तदारहरणे सर्वोऽपि दक्षो जनः
कस्माज्जीवसि  हे सखे ! विषकृमिन्यायेन जीवाम्यहम्।।१२.९।।  

कोई पथिक किसी नगर में जाकर किसी सज्जन से पूछता है - हे भाई !

इस नगर में कौन बड़ा है ?
उसने उत्तर दिया - बड़े तो ताड़ के पेड़ हैं।

दाता कौन है ?
धोबी , जो सवेरे कपड़े ले जाता और शाम को वापस दे जाता है।

यहाँ चतुर कौन है ?
पराई स्त्री और दौलत ऐंठने में यहाँ सभी चतुर हैं।

तो फिर हे सखे ! तुम यहाँ जीते कैसे हो ?
उसी तरह जीता हूँ , जैसे कि विष का कीड़ा विष में रहता हुआ भी जिन्दा रहता है।

 

१२.८ सज्जनों का सत्संग

साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः।
कालेन फलते तीर्थं सद्यः साधुसमागमः।।१२.८।।

सज्जनों का दर्शन बड़ा पुनीत होता है।  क्योंकि साधु जन तीर्थ के समान रहते हैं।  बल्कि तीर्थ तो कुछ समय बाद फल देते हैं पर सज्जनों का सत्संग तत्काल फलदायक होता है।

१२.७ सत्संग

सत्सङ्गाद्  भवति हि साधुता खलानां साधूनां नहि खलसङ्गतेः खलत्वम्।
आमोदं कुसुमभवं मृदेव धत्ते मृद्गन्धं नहि कुसुमानि धारयन्ति।।१२.७।।

सत्संग के दुष्ट सज्जन हो जाते हैं।  पर सज्जन उनके संग से दुष्ट नहीं होते।  जैसे फूल की सुगंधि को मिट्टी अपनाती है , पर फूल मिट्टी की सुगन्धि को नहीं अपनाते।

१२.६ कौन मिटा सकता है

पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किं
नोलूकोऽवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम्।
वर्षा नैव पतेत्तु चातकमुखे मेघस्य किं दूषणं
यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुं कः क्षमः।।१२.६।।  

यदि करीर के पेड़ में पत्ते नहीं लगते तो वसन्त ऋतु का क्या दोष ?
उल्लू दिन को नहीं देखता तो इसमें सूर्य का क्या दोष?
बरसात की बूँदें चातक के मुख में नहीं गिरतीं तो इसमें मेघ का क्या दोष ?
विधाता ने पहले ही ललाट में जो लिख दिया है , उसे कौन मिटा सकता है।

१२.५ धिक्कार है

येषां श्रीमद्यशोदासुतपदकमले नास्ति भक्त्तिर्नराणां
येषामाभीरकन्याप्रियगुणकथने नानुरक्त्ता रसज्ञा।
येषां श्रीकृष्णलीलाललितरसकथा सादरौ नैव कर्णौ
धिक्त्तां धिक्त्तां धिगेतान्  कथयति सततं कीर्तनस्थो मृदङ्गः।।१२.५ ।। 

कीर्तन के समय बजता हुआ मृदंग कहता है कि , जिन मनुष्यों की श्रीकृष्ण चन्द्रजी के चरण - कमलों में भक्त्ति नहीं है , श्रीराधारानी के प्रिय गुणों के कहने में जिसकी रसना अनुरक्त्त नहीं है और श्रीकृष्ण भगवान् की लीलाओं को सुनने के लिए जिसके कान उत्सुक नहीं हैं।  ऐसे लोगों को धिक्कार है , धिक्कार है।

१२.४ मनुष्यों का रूप धारण किये हुए सियार

 हस्तौ दान - विवर्जितौ श्रुतिपुटौ सारस्वतद्रोहिणौ
नेत्रे साधुविलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थं गतौ।
अन्यायार्जित - वित्तपूर्णमुदरं गर्वेण तुङ्गं शिरो
रे रे जम्बुक ! मुञ्च मुञ्च सहसा नीचं सुनिन्द्यं वपुः।।१२.४।।

जिसके दोनों हाथ दान विहीन हैं , दोनों कान विद्याश्रवण से पराङ्मुख हैं नेत्र सज्जनों का दर्शन नहीं करते और पैर तीर्थों का पर्यटन नहीं करते।  जो अन्याय से अर्जित धन से पेट पालते हैं और गर्व से सिर ऊँचा करके चलते हैं , ऐसे मनुष्यों का रूप धारण किये हुए ऐ सियार ! तू झटपट अपने इस नीच और निन्दनीय शरीर को छोड़ दे।

१२.३ कलाकुशल मनुष्य

दाक्षिण्यं स्वजने दया परजने शाठ्यं सदा दुर्जने
प्रीतिः साधुजने स्मयः खलजने विद्वज्जने चार्जवम्।
शौर्यं शत्रुजने क्षमा गुरुजने नारीजने धूर्तता
इत्थं ये पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः।।१२.३।।

जो मनुष्य अपने परिवार में कुशलता और पराये में उदारता , दुर्जनों के साथ शठता , सज्जनों से प्रेम , दुष्टों में अभिमान , विद्वानों में  कोमलता , शत्रुओं में वीरता , गुरुजनों में क्षमा और स्त्रियों में धूर्तता का व्यवहार करते हैं।  ऐसे ही कलाकुशल मनुष्य संसार में आनन्द के साथ रह सकते हैं।

१२.२ श्रद्धापूर्वक और दयाभाव से दान

 आर्तेषु विप्रेषु दयान्वितश्च यच्छ्रद्धया स्वल्पमुपैती दानम्।
अनन्तपारं समुपैति दानं यद्दीयते तन्न लभेद् द्विजेभ्यः।।१२.२।।

जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक और दयाभाव से दीन - दुखियों तथा ब्राह्मणों को थोड़ा भी दान दे देता है तो वह उसे अनन्तगुणा होकर उन दीन ब्राह्मणों से नहीं बल्कि ईश्वर के दरबार से मिलता है।

१२.१ गृहस्थाश्रम के गुण

सानन्दं सदनं सुतास्तु सुधियः कान्ता प्रियालापिनी
इच्छापूर्तिधनं स्वयोषिति रतिः स्वाज्ञापराः सेवकाः।
आतिथ्यं शिवपूजनं प्रतिदिनं मिष्टान्नपानं गृहे
साधोः सङ्गमुपासते च सततं धन्यो गृहस्थाश्रमः।।१२.१।।

आनन्द से रहने लायक घर हो , पुत्र बुद्धिमान हो , स्त्री मधुरभाषिणी हो , मनमाना धन हो , अपनी स्त्री से प्रेम हो , सेवक आज्ञाकारी हो , घर आये हुए अतिथियों को सत्कार हो , प्रतिदिन शिवजी का पूजन होता रहे  और सज्जनों का साथ हो तो फिर वह गृहस्थाश्रम धन्य है।