सोमवार, 14 मार्च 2016

२.६ विश्वास न करें

न विश्वसेत् कुमित्रे च मित्रे चापि न विश्वसेत्।
कदाचित् कुपितं मित्रं सर्वगुह्यं प्रकाशयेत्।।२.६।।

(अपनी किसी गुप्त बात के विषय में ) कुमित्र पर तो किसी तरह विश्वास न करें और मित्र पर भी न करें।   क्योंकि हो सकता है कि वह मित्र कभी बिगड़ जाय और सारे गुप्त भेद खोल दे।

२.५ विष भरा घड़ा

परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
वर्ज्जयेत्ताद्व्शं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्।।२.५।।

जो पीठ पीछे अपना काम बिगाड़ता हो और मुँह पर मीठी  मीठी बातें करता हो। ऐसे मित्र को उसी प्रकार त्याग देना चाहिए जिस प्रकार विष भरे घड़े को लोग त्याग देते हैं। वह मित्र एक विष भरा घड़ा है जिसके मुख में थोड़ा सा दूध डाल दिया गया है। 

२.४ कुछ परिभाषाएँ

ते पुत्रा ये पितुर्भक्ताः स पिता यस्तु पोषकः।
तन्मित्रं यत्र विश्वासः सा भार्या यत्र निर्वृतिः।।२.४।।

कुछ परिभाषाएँ
  1. वे ही पुत्र हैं जो पिता के भक्त हैं। 
  2. वही पिता है , जो अपनी सन्तान का उचित रीति से पालन - पोषण करता है। 
  3. वही मित्र है जिस पर अपना विश्वास है। 
  4. वही स्त्री है जिससे हृदय आनन्दित होता है।

२.३ इन मनुष्यो के लिए धरती ही स्वर्ग है

यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी।
विभवे यश्च सन्तुष्टस्तस्य स्वर्ग इहैव हि।।२.३।।

इन मनुष्यो के लिए धरती ही स्वर्ग है
  1. जिसका पुत्र अपने वश में हो 
  2. स्त्री आज्ञाकारिणी हो 
  3. जो प्राप्त धन से सन्तुष्ट हो।

२.२ साधारण तपस्या का फल नहीं है

भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्वराङ्गना।
विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम्।।२.२।।

नीचे बताई हुई बातें होना साधारण तपस्या का फल नहीं है। इसके लिए अखण्ड तपस्या की जरूरत है।
  1. भोजन के पदार्थों का उपलब्ध होते रहना,
  2. भोजन की शक्ति विद्यमान रहना (अर्थात् स्वास्थ्य में किसी तरह की खराबी न रहना),
  3. रतिशक्त्ति बनी रहना,
  4. सुन्दर स्त्री का मिलना,
  5. इच्छानुकूल धन रहना और 
  6. दानशक्त्ति का रहना।  

२.१ स्त्रियों के स्वाभाविक दोष

अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमतिलोभिता।
अशौचत्वं निर्दयत्वं स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः।।२.१।।

स्त्रियों के स्वाभाविक दोष
  1. झूठ बोलना,
  2. एकाएक कोई कामकर बैठना,
  3. नखरे करना,
  4. मूर्खता करना,
  5. ज्यादा लालच करना,
  6. अपवित्र रहना और 
  7. निर्दयता का बर्ताव करना।

१.१७ स्त्रियों में पुरुष की अपेक्षा

स्त्रीणां द्विगुण आहारो लज्जा चापि चतुर्गुणा।
साहसं षड्गुणं चैव कामश्चाऽष्टगुणः स्मृतः।।१.१७।।

स्त्रियों में पुरुष की अपेक्षा दूना आहार ,चौगुनी लज्जा , छगुना साहस और आठगुना काम का वेग रहता है।  

१.१६ इन चीज़ो को ले लेना चाहिए

विषादप्यमृतं ग्राह्मममेध्यादपि काञ्चनम्।
नीचादप्युत्तमां विद्यां स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि।।१.१६।।

इसमें से इन चीज़ो को ले लेना चाहिए
  1. विष से अमृत 
  2. अपवित्र स्थान से काञ्चन 
  3. नीच मनुष्य से उत्तम विद्या 
  4. दुष्टकुल से स्त्रीरत्न

१.१५ इन लोगों का विश्र्वास नहीं करना चाहिये

नदीनां शस्त्रपाणीनां नखीनां श्रृङ्गिणां तथा।
विश्वासो नैव कर्तव्यः स्त्रीषु राजकुलेषु च।।१.१५।।

इन लोगों का विश्र्वास नहीं करना चाहिये
  1. नदियों का 
  2. शस्त्रधारियों का 
  3. बड़े - बड़े नखवाले जन्तुओं का 
  4. सींगवालों का 
  5. स्त्रियों का और 
  6. राजकुल के लोगों का।

१.१४ समझदार मनुष्य

वरयेत् कुलजां प्राज्ञो विरूपामपि कन्यकाम्।
रूपशीलां न नीचस्य विवाहः सदृशे कुले।।१.१४।।

समझदार मनुष्य का कर्तव्य है कि वह कुरूपा भी कुलवती कन्या के साथ विवाह कर ले। पर नीच सुरूपवती के साथ न करे। क्योंकि विवाह अपने समान कुल में ही अच्छा होता है। 

१.१३ निश्चित अनिश्चित

यो ध्रुवाणि मरित्यज्य अध्रुवं परिषेवते।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि।।१.१३।।

जो मनुष्य निश्चित वस्तु को छोड़कर अनिश्चित की ओर दौड़ता है उसकी निश्चित वस्तु भी नष्ट हो जाती है और अनिश्चित तो मानो पहले ही नष्ट थी।

१.१२ वही बान्धव कहलाने का अधिकारी है

आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसङ्कटे।
राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः।।१.१२।।

जो व्यक्ति इन स्थानों पर ठीक समय पर पहुँचता है वही बान्धव कहलाने का अधिकारी है
  1. बीमारी में,
  2. दुःख में,
  3. दुर्भिक्ष में,
  4. शत्रु द्वारा किसी प्रकार का सङ्कट उपस्थित होने पर,
  5. राजद्वार में और 
  6. श्मशान पर।

१.११ इन व्यक्तियों की इन परिस्थितियों में परीक्षा की जाती है

जानीयात् प्रेषणे भृत्यान् बान्धवान् व्यसनागमे।
मित्रं चापत्तिकाले तु भार्या च विभवक्षये।।१.११।।

इन व्यक्तियों की इन परिस्थितियों में परीक्षा की जाती है
  1. सेवा कार्य उपस्थित होने पर सेवकों की,
  2. आपत्तिकाल में मित्र की,
  3. दुःख में बान्धवों की  और
  4. धन के नष्ट हो जाने पर स्त्री की।

१.१० ऐसे मनुष्य से मित्रता नहीं करनी चाहिए

धनिकः श्रोतियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसं वसेत्।।१.१०।।

जिसमें
  1. रोजी,
  2. भय ,
  3. लज्जा  ,
  4. उदारता और 
  5. त्यागशीलता 
नहीं है ऐसे मनुष्य से मित्रता नहीं करनी चाहिए।

१.८ इन स्थानों का त्याग कर देना ही उचित है

यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवः।
न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत्।।१.८।।

इन स्थानों का त्याग कर देना ही उचित है
  1. जिस जगह आदर - सम्मान न हो,
  2. आजीविका का कोई साधन न हो,
  3. कोई मित्र और रिश्तेदार भी न हो  और
  4. किसी प्रकार का ज्ञान अथवा गुणों की प्राप्ति की भी संभावना न हो।

१. ७ धन का संग्रह

आपदर्थे धनं रक्षेच्छ्रीमतश्च किमापदः।
कदाचिच्चलिता लक्ष्मीः संचितोऽपि विनश्यति।।१. ७।।

आपदा से रक्षा के लिए मनुष्य को धन का संग्रह करना चाहिए।  क्योंकि धन किसी भी प्रकार की आपत्ति का सामना कर सकता है।  

१.६ स्त्री और धन से भी बढ़कर

आपदर्थे धनं रक्षेद्दारान् रक्षेद्धनैरपि।
आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि।।१.६।।

आपत्तिकाल के लिए धनको और धन से भी बढ़कर स्त्री की रक्षा करनी चाहिए।  किन्तु स्त्री और धन से भी बढ़कर मनुष्य को स्वयं की रक्षा करनी चाहिए।

१.५ मृत्यु

दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः।
स-सर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः।।५।।

ये परिस्थितियाँ मृत्यु के समान हैं
  1. दुष्ट स्त्री 
  2. धूर्त तथा नीच स्वभाव वाला मित्र 
  3. मुँह पर जबाब देने वाला नौकर 
  4. ऐसा घर जहाँ सर्प के होने का अन्देशा हो।

१.४ कष्ट

मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च।
दुःखिते सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति।।४।।

बुद्धिमान व्यक्ति को यह कार्य करके कष्ट उठाने पड़ते है
  1. मूर्ख शिष्य को उपदेश देने पर 
  2. दुष्ट  स्त्री का भरण - पोषण करने पर 
  3. दुःखी व्यक्तियों के साथ व्यवहार रखने से।  

१.३ चाणक्यनीति

तदहं संप्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया।
येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रपघते ।।३।।
 

१.२ कार्य और शास्त्र

अधीत्येदं यथाशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः।
धर्मोपदेशविख्यातं कार्याऽकाय शुभाऽशुभम्।।२।।

 इस शास्त्र को पढ़ने के बाद मनुष्य सत्य और अच्छी बातों को जान सकेगा। धर्म में यह कहा गया है कि जो व्यक्त्ति शास्त्रों का ज्ञाता होता है वह अपने कार्य को शुभ और व्यवस्थित  ढंग से कर सकता है।

मेरा मत

किसी भी प्राणी को ज्ञान इसी संसार में आकर मिलता है और उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए उसे बहुत परिश्रम करना पड़ता है। पहले ज़माने में शास्त्र ही ज्ञान प्राप्त करने के साधन थे। उससे पहले सारा ज्ञान ऋषियों द्वारा बालकों को बोलकर सिखाया जाता था। फिर उसे पत्तों पर लिखा जाने लगा। जैसे जैसे दूसरे जगह के इंसान ने तरक्की की उसे अपने काम सरल बनाने कि इच्छा हुई। उसने अपने कार्य सरल भी कर लिए पर आज वह उस ज्ञान से बहुत दूर निकल गया है जो उनमें  होना चाहिए। यह ज्ञान हमारे शास्त्रों में भरा पड़ा है।

हमारे शास्त्रों में जीवन जीने का तरीका लिखा है। जब हम इस तरह के शास्त्र पढ़ते हैं तब हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि हमें कब कौन सा कार्य करना है। हमें दूसरों के साथ किस तरह रहना है। हम जो ज्ञान शास्त्रों से पाते हैं वह ज्ञान जीवन के बहुत करीब होता है। आज जो ज्ञान हमारे बच्चे प्राप्त करते हैं वह ज्ञान किसी एक चीज़ के बारे में होता है। और वह भी समय के साथ बदलता रहता है।  कंप्यूटर की दुनिया में १० साल में बहुत कुछ बदल जाता है।  पर जो ज्ञान शास्त्रों में हैं वह आज भी उतना ही जरुरी है जितना की आज से हज़ारो वर्ष पूर्व था। आज जो ज्ञान दिया जाता है उसमे और हमारे शास्त्रों के ज्ञान में यह अंतर है कि आज का ज्ञान जीवन को सरल बनाने के लिए दिया जाता है और हमारे शास्त्रों का ज्ञान जीवन को उत्तम बनाने के लिए दिया जाता था। भले ही हमारे शास्त्रों का ज्ञान अपनाने में कठिन था पर वह हमें जीवन जीने का ढंग सिखा देता है।

 इस ग्रंथ में हम जीवन जीने के तरीकों का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे और हमें  कौन सा कार्य कब करना है यह ज्ञात कर सकेंगे। 

१.१ प्रारम्भ

प्रणम्य शिरसा विष्णुं त्रैलोक्याधिपतिं प्रभुम्।
नानाशास्त्रोद्घृतं वक्ष्ये राजनीतिसमुच्चयम्।।१।।

मैं अपना सिर झुकाकर विष्णु भगवान् को प्रणाम करता हूँ जो तीनों लोकों के स्वामी हैं और हमारे आराध्य प्रभु हैं । यह शास्त्र कई शास्त्रो में से उत्तम राजनीति की बातों का संग्रह है।

मेरा मत

हर इन्सान अपने जीवन में पहली बार कुछ न  कुछ करता ही है।  और अपने जीवन में पहली बार कुछ भी करने से पहले हमें अपने काम करने की रूप - रेखा अवश्य तैयार कर लेनी चाहिये। आज अगर कोई व्यक्त्ति कोई व्यापार करना चाहता है तो वह पहले यह मंत्रणा कर लेता है जिसमें  हर कार्य को वह कुछ भागों में बांटता है।  उनमें से मुख्य बातें हैं :
  1. Planning
  2. Organizing
  3. Staffing
  4. Directing 
यह व्यापार करने पर किया जाता है। जिसमे planning सबसे प्रमुख है। यह हर कार्य मे काम मे लाया जाता है चाहे वह व्यापार से जुड़ा हुआ है या नहीं । आपने इस दोहे में देखा कि चाणक्य ने पहले कई शास्त्रों  से बातें जुटाई फिर उनमें  से कुछ अच्छी बातों को संग्रहित किया और इस ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया।  इसमें यह देखा गया कि  चाणक्य के मन में पहले विचार उठा जिसने कुछ मंत्रणा के बाद इस पुस्तक का रूप लिया। संग्रह का काम organizing का रूप है।

अगर हम कोई भी कार्य करते हैं तो हमें अपने से बड़े लोगों का आशीर्वाद अवश्य ले लेना चाहिये। इसका कारण यह है कि हर इंसान के पास कुछ आत्मिक शक्ति होती है और वह उनके खुश होने से बढ़ जाती  है।  हम अगर अपने से बड़ो से विचार विमर्ष कर कोई कार्य करते हैं तो हमे कुछ अच्छी बातों का पता चलता है। पर आज जमाना बहुत तेजी से बदल रहा है।  वह ज्ञान जो हमारे पिता को थी आज उसकी कोई जरुरत नहीं है और शायद जो ज्ञान हमें  हो वह हमारे बच्चों जो जरुरी न लगे। हम कभी नहीं चाहेंगे कि हमारे क्षमता को हमारे बच्चे नज़रअंदाज़ करें। इसलिए हमें हमारे बुजुर्गों की बातें अवश्य सुननी चाहिये।

हमारे भगवान भी हमारे माता - पिता के समान हैं।  हमारे माता पिता हमें राह दिखाते है और हमारे भगवान सभ्यताओं को। इसलिये इससे अच्छी बात क्या होगी की हम अपने प्रभु के नाम को लेकर अपना कार्य आरम्भ करें।