गुरुवार, 17 मार्च 2016

६.१५ - ६.२२ बीस गुण

सिंहादेकं वकादेकं शिक्षेच्चत्वारि  कुक्कुटात्।
वायसात् पञ्च शिक्षेच्च षट् शुनस्त्रीणि  गर्दभात्।।६.१५।।

सिंह से एक गुण , बगुले से एक गुण , मुर्गे से चार गुण , कौऐ से पाँच गुण ,कुत्ते से छह गुण और गधे से तीन गुण ग्रहण करना चाहिए।

प्रभूतं कायमपि वा तन्नरः कर्तुमिच्छति।
सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते।।६.१६।।

मनुष्य कितना ही बड़ा काम क्यों न करना चाहता हो ,उसे चाहिए कि सारी शक्ति लगाकर वह काम करे। यह गुण उसे सिंह से सीखना चाहिये।

इन्द्रियाणि च संयम्य वकवत् पण्डितो नरः।
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत्।।६.१७।।

समझदार मनुष्य को चाहिए कि वह बगुले की तरह इन्द्रियों पर संयम रखकर देश - काल के अनुसार अपना बल देखकर सब कार्य साधे।

प्रत्युत्थानं च युद्धं च संविभागं च बन्धुषु।
स्वयमाक्रम्य भुक्त्तं च शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्।।६.१८।।

ठीक समय से जागना , लड़ना , बन्धुओं के हिस्से का बॅटवारा और छीन - झपट कर भोजन कर लेना ये चार बातें मुर्गे से सीखें।

 गूढमैथिुनचारित्रं काले काले च संग्रहम्।
अप्रमत्तमविश्वासं पञ्च शिक्षेच्च वायसात्।।६.१९।।

एकान्त में स्त्री का संग करना , समय-समय पर कुछ संग्रह करते रहना , हमेशा चौकन्ना रहना और किसी पर विश्वास न करना , ढीठ रहना , ये पाँच गुण कौए से सीखना चाहिए।

बह्वाशी स्वल्पसन्तुष्टः सनिद्रो लघुचेतनः।
स्वामिभक्तश्च शूरश्च षडेते श्वानतो गुणाः।।६.२०।।

 अधिक भूख रहते भी थोड़े में सन्तुष्ट रहना , सोते समय होश ठीक रखना , हल्की नींद सोना , स्वामिभक्ति और बहादुरी - ये गुण कुत्ते से सीखना चाहिये।

सुश्रान्तोऽपि वहेत् भारं शीतोष्णं न च पश्यति।
सन्तुष्टश्चरते नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात्।।६.२१।।

भरपूर थकावट रहने पर भी बोझा ढोना , सर्दी - गर्मी की परवाह न करना , सदा  सन्तोष रखकर जीवन - यापन करना - ये तीन गुण गधे से सीखना चाहिए।

एतान् विंशतिगुणानाचरिष्यति मानवः।
कार्यावस्थासु सर्वासु अजेयः स भविष्यति।।६.२२।।

जो मनुष्य ऊपर गिनाये बीसों गुणों को अपना लेगा और उसके अनुसार चलेगा , वह सभी कार्य में अजेय रहेगा।
 

६.१४ दुष्ट

कुराजराज्येन कुतः प्रजासुखं कुमित्रमित्रेण कुतोऽभिनिर्वृतिः।
कुदारदारैश्च कुतो गृहे रतिः कुशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः।।६.१४।।

दुष्ट राजा के राज्य में प्रजा को सुख कैसे मिल सकता है ?
दुष्ट मित्र से भला हृदय कब आनन्दित हो सकता है ?
दुष्ट स्त्री के रहने पर घर कैसे अच्छा लगेगा ?
दुष्ट शिष्य को पढ़ाकर यश कैसे प्राप्त हो सकता है ?  

६.१३ न हो तो अच्छा

वरं न राज्यं न कुराजराज्यं वरं न मित्रं न कुमित्रमित्रम्।
वरं न शिष्यो न कुशिष्यशिष्यो वरं न दारा न कुदारदाराः।।६.१३।।

राज्य ही न हो तो अच्छा, पर कुराज्य अच्छा नही।
मित्र ही न हो तो अच्छा, पर कुमित्र होना अच्छा नहीं।
शिष्य ही न हो तो अच्छा, पर कुशिष्य होना अच्छा नहीं।
स्त्री न हो तो ठीक है, पर दुष्ट स्त्री होना अच्छा नहीं ।

६.१२ इनको इस तरह वश में करें

लुब्धमर्थेन गृह्णीयात् स्तब्धमञ्जलिकर्मणा।
मूर्खं छन्दानुवृत्त्या च यथार्थत्वेन पण्डितम्।।६.१२।।

इनको इस तरह वश में करें
  1. लालची को धनसे ,
  2. घमण्डी को हाथ जोड़कर ,
  3. मुर्ख को उसके मनवाली करके और 
  4. पण्डित को यथार्थ बात से।

६.११ ये मानव जाति के शत्रु हैं

ऋणकर्ता पिता शत्रुर्माता च व्यभिचारिणी।
भार्या रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः।।६.११।।

ये मानव जाति के शत्रु हैं
  1. ऋण करने वाला पिता ,
  2. व्यभिचारिणी माता ,
  3. रूपवती स्त्री और 
  4. मूर्ख पुत्र।  

६.१० ये इनके पाप को भोगते हैं

राजा राष्ट्रकृतं पापं राज्ञः पापं पुरोहितः।
भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्यपापं गुरुस्तथा।।६.१०।।

ये इनके पाप को भोगते हैं
  1. राज्य के पाप को राजा ,
  2. राजा का पाप पुरोहित ,
  3. स्त्री का पाप पति और 
  4. शिष्य का पाप गुरु।

६.९ स्वयं

स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते।
स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद् विमुच्यते।।६.९।।

जीव स्वयं कर्म करता है और स्वयं उसका शुभाशुभ फल भोगता है। वह स्वयं संसार में चक्कर खाता है और  समय पाकर स्वयं छुटकारा भी पा जाता है।

६.८ स्वार्थी मनुष्य

नैव पश्यति जन्मान्धः कामान्धो नैव पश्यति।
मदोन्मत्ता न पश्यन्ति अर्थी दाषं न पश्यति।।६.८।।

न जन्म का अन्धा देखता है, न कामान्ध कुछ देख पाता है और न उन्मत्त पुरुष ही कुछ देख पाता है।  उसी तरह स्वार्थी मनुष्य किसी बात में दोष नहीं देख पाता।

६.७ काल को कोई टाल नहीं सकता

कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः।
कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः।।६.७।।

काल सभी प्राणियों को खा जाता है।  काल प्रजा का संहार करता है।  वह लोगों के सो जाने पर भी वह जागता रहता है। तात्पर्य यह कि काल को कोई टाल नहीं सकता।

६.६ कार्य और सहायक

यादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायोऽपि तादृशः।
सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता।।६.६।।

जिस तरह की बुद्धि होती है, वैसा ही कार्य होता है और जैसा होनहार होता है सहायक भी उसी प्रकार के मिल जाते हैं।  

६.५ धन

यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः।
यस्यार्थाः स पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः।।६.५।।

जिसके पास धन है उसके बहुत से मित्र हैं।
जिसके पास धन है उसके बहुत से बान्धव  हैं।
जिसके पास धन है वही संसार का श्रेष्ठ पुरुष है।
जिसके पास धन है वही पण्डित है।

६.४ भ्रमण करने वाला

भ्रमन्सम्पूज्यते राजा भ्रमन्सम्पूज्यते द्विजः।
भ्रमन्संपूज्यते योगी स्त्री भ्रमन्ती विनश्यति।।६.४।।

भ्रमण करने वाला राजा पूजा जाता है। भ्रमण करने वाला ब्राह्मण भी  पूजा जाता है। भ्रमण करता  हुआ योगी  पूजा जाता है। पर भ्रमण करने वाली स्त्री नष्ट हो जाती  है।

६.३ शुद्ध

भस्मना शुध्यते कांस्यं ताम्रमम्लेन शुध्यति।
रजसा शुध्यते नारी नदी वेगेन शुध्यति।।६.३।।

राख से काँसे का बर्तन साफ़ होता है। खटाई से ताँबा साफ होता है। रजोधर्म से स्त्री शुद्ध होती है। वेग से नदी शुद्ध होती है।

६.२ चाण्डाल

पक्षिणां काकचाण्डालः पशूनां चैव कुक्कुरः।
मुनीनां पापी चाण्डालः सर्वचाण्डालनिन्दकः।।६.२।।

पक्षियों में चाण्डाल कौआ है। पशुओं में चाण्डाल कुत्ता।  मुनियों में चाण्डाल है पाप और सबसे बड़ा चाण्डाल है निन्दक।

६.१ मोक्षपद को प्राप्त

श्रुत्वा धर्मं विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम्।
श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात्।।६.१।।

मनुष्य सुनकर ही धर्म का तत्त्व समझता हैं।  सुनकर ही दुर्बुद्धि को त्यागता है। सुनकर ही ज्ञान प्राप्त करता है और सुनकर ही मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है।

५.२३ माता पाँच तरह की होती हैं

राजपत्नी गुरोः पत्नी मित्र -पत्नी तथैव च।
पत्नी -माता स्वमाता च पञ्चैत मातरः स्मृताः।।५.२३।।

उसी तरह माता भी पाँच ही तरह की होती हैं।  जैसे ,
१. राजा की पत्नी ,
२. गुरु की पत्नी ,
३. मित्र की पत्नी ,
४. अपनी स्त्री की माता और
५. अपनी खास माता।

५.२२ पिता पाँच प्रकार के होते हैं

जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता पञ्चैत पितरः स्मृताः।।५.२२।।

संसार में पिता पाँच प्रकार के होते हैं।  ऐसे कि
१. जन्म देने वाला ,
२. विद्यादाता ,
३. यज्ञोपवीत आदि संस्कार करने वाला ,
४. अन्न देने वाला और
५. भय से बचाने वाला।

५.२१ ये सब धूर्त होते हैं

नराणां नापितो धूर्तः पक्षिणां चैव वायसः।
चतुष्पदां श्रृंगालस्तु स्त्रीणां धूर्ता च मालिनी।।५.२१।।

ये सब धूर्त होते हैं ,
१. मनुष्यों में नाऊ ,
२. पक्षियों में कौआ ,
३. चौपायों में स्यार और
४. स्त्रियों में मालिन।

५.२० अचल और अटल

चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणश्चले जीवितमन्दिरे।
चलाऽचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः।।५.२०।।

लक्ष्मी चंचल हैं , प्राण भी चंचल ही है , जीवन तथा घर - द्वार भी चंचल है और कहाँ तक कहें यह सारा संसार चंचल है , बस धर्म केवल अचल और अटल है।

५.१९ सब कुछ सत्य में ही है

सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः।
सत्येन वाति वायुश्च सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम्।।५.१९।।

सत्य के आधार पर पृथ्वी रुकी है।  सत्य के सहारे सूर्य भगवान् संसार को गर्मी पहुँचाते हैं।  सत्य के ही बल पर वायु बहता है।  कहने का मतलब यह कि सब कुछ सत्य में ही है।

५.१८ धन, वाणी, स्वर्ग और मोक्ष

अधना धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदाः।
मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्ति देवताः।।५.१८।।

दरिद्र मनुष्य धन चाहते हैं।  चौपाये वाणी चाहते हैं।  मनुष्य स्वर्ग चाहते हैं और देवता लोग मोक्ष चाहते हैं।

५.१७ मेघ, आत्मबल, नेत्र और अन्न

नास्ति मेघसमं तोयं नास्ति चात्मसमं बलम्।
नास्ति चक्षुः समं तेजो नास्ति धान्यसमं प्रियम्।।५.१७।।

मेघ जल के समान उत्तम और कोई जल नहीं होता।
आत्मबल के समान और कोई बल नहीं है।
नेत्र के समान और किसी में तेज नहीं है। और
अन्न के समान प्रिय कोई वस्तु नहीं है।

५.१६ व्यर्थ है

वृथा वृष्टिः समद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्।
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवाऽपि च।।५.१६।।

समुद्र में वर्षा व्यर्थ है।
तृप्त को भोजन व्यर्थ है।
धनाढ्य को दान देना व्यर्थ है।  और
दिन के समय दीपक जलाना व्यर्थ है।

५.१५ मित्र

विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च।।५.१५।।

परदेश में विद्या मित्र है।
घर में स्त्री मित्र है। 
रोगी को औषधि मित्र है। और
मरे हुए मनुष्य का धर्म मित्र है।

५.१४ तृण के समान

तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गस्तृणं शूरस्य जीवितम्।
जिताक्षस्य तृणं नारी निःस्पृहस्य तृणं जगत् ।।५.१४।।

ब्रह्मज्ञानी के लिये स्वर्ग तिनके समान है। 
बहादुर के लिए जीवन तृण के समान है। 
जितेन्द्रिय को नारी और निस्पृह के लिए सारा संसार तृण के समान है।

५.१३ संसार के मनुष्य

जन्ममृत्युं हि यात्पेको भुनक्त्येकः शुभाऽशुभम्।
नरकेषु पतत्येक एको याति परां गतिम्।।५.१३।।

संसार के मनुष्यों में - से
एक मनुष्य जन्म - मरण के चक्कर में पड़ता है ,
एक अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है ,
एक नरक  जा गिरता है  और
एक परम पद को प्राप्त कर लेता है।

५.१२ के समान कोई

नास्ति कामसमो व्याधिर्नास्ति मोहसनो रिपुः।
नास्ति कोपसमो वह्निर्नास्ति ज्ञानात् परं सुखम्।।५.१२।।

काम के समान कोई रोग नहीं है ,
मोह (अज्ञान ) के समान कोई शत्रु नहीं है ,
क्रोध के समान और कोई अग्नि नहीं है  और
ज्ञान से बढ़कर और कोई सुख नहीं है।

५.११ नष्ट कर देता

दरिद्र्यनाशनं दानं शीलं दुर्गतिनाशनम्।
अज्ञाननाशिनी प्रज्ञा भावना भयनाशिनी।।५.११।।

दान से दरिद्रता नष्ट होती है ,
शील दुरवस्था को नष्ट कर देती है ,
बुद्धि अज्ञानता को नष्ट कर देती है , और
विचार भय को नष्ट कर देता है।

५.१० व्यर्थ कष्ट

अन्यथा वेदपाण्डित्यं शास्त्रमाचारमन्यथा।
अन्यथा वदता शान्तं लोकाः क्लिश्यन्ति चाऽन्यथा।।५.१०।।

वेद को , पाण्डित्य को , शास्त्र को , सदाचार को और शान्त मनुष्य को जो लोग बदनाम करना चाहते हैं , वे व्यर्थ कष्ट करते हैं।  

५.९ रक्षा

वित्तेन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते।
मृदुना रक्ष्यते भूपः सत् - स्त्रिया रक्ष्यते गृहम्।।५.९।।

धन से धर्म की ,
योग से विद्या की ,
कोमलता से राजा की और
अच्छी स्त्री से  घर की रक्षा होती है।

५.८ अभ्यास और शील

अभ्यासाद्धार्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते।
गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण गम्यते।।५.८।।

अभ्यास से विद्या की और शील से कुल की रक्षा होती है।
गुणों से मनुष्य को पहिचान जाता है , और
आँखें देखने से क्रोध का पता लग जाता है।

५.७ आलस, पराये हाथ, बीज में कमी और सेनापति विहीन सेना

आलस्योपगता विद्या परहस्तगतं धनम्।
अल्पबीजं हतं क्षेत्रं हतं सैन्यमनायकम्।।५.७।।

आलस से विद्या ,
पराये हाथ में गया धन ,
बीज में कमी करने से खेती और
सेनापति विहीन सेना नष्ट हो जाती है।

५.६ शत्रु

मुर्खाणां पण्डिता द्वेष्या अधनानां महाधनाः।
वाराङ्गना कुलस्त्रीणां शुभगानां च दुर्भगा।।५.६।।

मूर्खों के पण्डित शत्रु होते हैं।
दरिद्रों के शत्रु धनी होते हैं।
कुलवती स्त्रियों की शत्रु वेश्यायें होती हैं। और
सुन्दर मनुष्यों के शत्रु कुरूप होते हैं।

५.५ नहीं हो सकता

निःस्पृहो नाधिकारी स्यान्नाकामो मण्डनप्रियः।
नाऽविदग्धः प्रियं ब्रूयात् स्पष्टवक्त्ता न वञ्चकः।।५.५।।

निस्पृह मनुष्य कभी अधिकारी नहीं हो सकता।
वासना से शून्य मनुष्य श्रिङ्गार का प्रेमी नहीं हो सकता।
जड़ मनुष्य कभी मीठी वाणी नहीं बोल सकता और
साफ़ - साफ़ बात करने वाला धोखेबाज नहीं होता।  

५.४ शील एक सा नहीं हो जाता

एकोदरसमुद्भूता एकनक्षत्रजातकाः।
न भवन्ति समाः शीला यथा बदरिकण्टकाः।।५.४।।

एक पेट से और एक ही नक्षत्र में उत्पन्न होने से किसी का शील एक सा नहीं हो जाता।  उदाहरण - स्वरूप बेर के काँटों को देखो।

५.३ भय

तावद्भयेन भेतव्यं यावद् भयमनागतम्।
आगतं तु भयं वीक्ष्य प्रहर्तव्यमशङ्कया।।५.३।।

भय से तभी तक डरो , जब तक कि वह तुम्हारे पास तक न आ जाय। 
और जब आ ही जाय तो डरो नहीं बल्कि उसे निर्भीक भाव से मार भगाने की कोशिश करो।

५.२ मनुष्य की परीक्षा

यथा चतुर्भिःकनकं परीक्ष्यते निघर्षणं छेदनतापताडनैः।
तथा चतुर्भिः पुरुषं परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।।५.२।।

जैसे रगड़ने से , काटने  से , तपाने से और पीटने से , इन चार उपायों से सुवर्ण की परीक्षा की जाती है , उसी प्रकार त्याग , शील , गुण और कर्म इन चार बातों से मनुष्य की परीक्षा होती है।

५.१ गुरु

गुरुरग्रिर्द्विजातीनां  वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः।
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरुः।।५.१।।

ब्राह्मण  , क्षत्रिय  तथा वैश्य इन तीनों का गुरु अग्नि है। उपर्युक्त्त चारों वर्णों का गुरु ब्राह्मण है , स्त्री का गुरु उसका पति है और संसार मात्र का गुरु अतिथि है।