गुरुवार, 17 मार्च 2016

५.५ नहीं हो सकता

निःस्पृहो नाधिकारी स्यान्नाकामो मण्डनप्रियः।
नाऽविदग्धः प्रियं ब्रूयात् स्पष्टवक्त्ता न वञ्चकः।।५.५।।

निस्पृह मनुष्य कभी अधिकारी नहीं हो सकता।
वासना से शून्य मनुष्य श्रिङ्गार का प्रेमी नहीं हो सकता।
जड़ मनुष्य कभी मीठी वाणी नहीं बोल सकता और
साफ़ - साफ़ बात करने वाला धोखेबाज नहीं होता।  

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