मंगलवार, 15 मार्च 2016

३.२१ लक्ष्मी स्वयं विराजमान

मूर्खा यत्र न पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसञ्चितम्।
दाम्पत्ये कलहो नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागता।।३.२१।।

जिस देश में मूर्खो की पूजा नहीं होती, जहाँ भरपूर अन्न का संचय रहता है, जहाँ स्त्री - पुरुष में कलह नहीं होता, वहाँ बस समझ लो कि लक्ष्मी स्वयं आकर विराजमान रहती हैं।

३.२० किसी काम के लिए नहीं

धर्मार्थकाममोक्षेषु यस्यैकोऽपि न विद्यते।
जन्म -जन्मनि मर्त्येषु मरणं तस्य केवलम्।।३.२०।।

धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष इन चार पदार्थों में -से एक पदार्थ भी जिसको सिद्ध नहीं हो सका ,ऐसे मनुष्य का मर्त्यलोक में बार - बार जन्म केवल मरने के लिए होता है। और किसी काम के लिए नहीं।  

३.१९ वही जीवित रहता है

उपसर्गेऽन्यचक्रे च दुर्भिक्षे च भयावहे।
असाधुजनसम्पर्के यः पलायति स जीवति।।३.१९।।

इन परिस्थितियों में जो मनुष्य भाग निकलता है वही जीवित रहता है।
वो परिस्थितियां हैं
  1. दंगा वगैरह खड़ा हो जाने पर ,
  2. किसी दूसरे राजा के आक्रमण करने पर ,
  3. भयानक अकाल पड़ने पर और 
  4. किसी दुष्ट का साथ हो जाने पर।  

३.१८ पुत्र को मित्र समान समझें

लालयेत् पञ्चवर्षाणि दस वर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्।।३.१८।।

पाँच वर्ष तक बच्चे का  दुलार करें। फिर दस वर्ष तक उसे ताड़ना दें। किन्तु सोलह वर्ष के हो जाने पर पुत्र को मित्र समान समझें।

३.१४ - ३.१७ कुपूत और सपूत

एकेनापि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना।
वासितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं तथा।।३.१४।।

जिस प्रकार एक फूले हुए वृक्ष के कारण पूरा वन सुगन्धित हो उठता है उसी प्रकार एक सपूत पुरे कुल को उज्जवल कर देता है।

एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वह्निना।
दह्यन्ते तद्वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं यथा।।३.१५।।

जंगल के एक ही सूखे और अग्नि से जलते हुए वृक्ष के कारण पूरा वन जल कर राख हो जाता है। उसी प्रकार एक कुपूत के कारण पूरा खानदान बदनाम हो जाता है।

एकेनापि सुपुत्रेण विद्यायुक्तेन साधुना।
आह्लादितं कुलं सर्वं यथा चन्द्रेण शर्वरी।।३.१६।।

एक ही सज्जन और विद्वान् पुत्र से सारा कुल आल्हादित हो उठता है जैसे चन्द्रमा के प्रकाश से रात्रि जगमगा उठती है।

कीं जातैर्बहुभिः पुत्रैः शोकसन्तापकारकैः।
वरमेकः कुलालम्बी यत्र विश्राम्यते कुलम्।।३.१७।।

शोक और सन्ताप देने वाले बहुत से पुत्रों के होने से क्या लाभ है? जब अपने कुल के अनुसार चलने वाला एक ही पुत्र बहुत है जहाँ सारा कुल विश्राम कर सके।

३.१३ सामर्थ्यवाले, व्यवसायी और प्रियवादी मनुष्य

कोऽतिभारः समर्थानां किं दूरं व्यवसायिनाम्।
को विदेशः सुविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम्।।३.१३।।

सामर्थ्यवाले पुरुष को कोई वस्तु भारी नहीं हो सकती।  व्यवसायी मनुष्य के लिए कोई प्रदेश दूर नहीं कहा जा सकता और प्रियवादी मनुष्य किसी का पराया नहीं कहा जा सकता।

३.१२ किसी बात में 'अति' न करें

अतिरूपेण वै सीता अतिगर्वेण रावणः।
अतिदानाद् बलिर्बद्धो  ह्यति सर्वत्र वर्जयेत्।।३.१२।।

अतिशय रूपवती होने के कारण सीता हरी गयीं।  अतिशय गर्व होने से रावण का नाश हुआ।  अतिशय दानी होने के कारण बलि को बँधना पड़ा। इसलिये लोगों को चाहिये कि किसी बात में 'अति' न करें। 

३.११ नहीं रह सकता

उद्योगे नास्ति दारिद्र्यं जपतो नास्ति पातकम्।
मौनेन कलहो नास्ति नास्ति जागरिते भयम्।।३.११।।

उद्योग करने पर दरिद्रता नहीं रह सकती।  ईश्वर का बार - बार स्मरण करते रहने पर पाप नहीं रह सकता।  चुप रहने पर लड़ाई - झगड़ा नहीं हो सकता।  जागते हुए मनुष्य के पास भय नहीं टिक सकता।

३.१० त्याग दें

त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्।।३.१०।।

कुल की रक्षा के लिए एक को त्याग दें।  ग्राम की रक्षा के लिए कुल को त्याग दें। जिले की रक्षा के लिए ग्राम को त्याग दें। आत्मरक्षा के लिये पृथ्वी को त्याग दें।

३.९ क्षमाशक्त्ति

कोकिलानां स्वरो रूपं नारी रूपं पतिव्रतम्।
विद्यारूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्।।३.९।।

कोयल का सौन्दर्य है उसकी बोली,स्त्री का सौन्दर्य है उसका पतिव्रता । कुरूप का सौन्दर्य है उसकी विद्या और तपस्वियों का सौन्दर्य है उनकी क्षमाशक्त्ति। 

३.८ अच्छा नहीं लगता

रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसम्भवाः।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः।।३.८।।

रूप यौवन से सम्पन्न , विशाल कुल में जन्मा विद्याविहीन उसी प्रकार अच्छा नहीं लगता जिस प्रकार सुगन्ध रहित पलास का फूल।

३. ७ त्याग देना चाहिए

मूर्खस्तु परिहर्त्तव्यः प्रत्यक्षो द्विपदः पशुः।
भिद्यते वाक्यशूलेन अद्वश्यं कण्टकं यथा।।३. ७।।

मुर्ख को दो पैरों वाला पशु समझकर त्याग देना चाहिए। क्योंकि वह अपने कंठ से कांटो के समान चुभने वाले वाक्यों से भेदता है।

३.६ मर्यादा

प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः।
सागरा भेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः।।३.६।।

समुद्र अपनी मर्यादा को प्रलयकाल में भंग कर देते हैं लेकिन सज्जन लोग प्रलयकाल में भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते हैं।  

३.५ कुलीन पुरुष

एकदर्थं कुलीनानां नृपाः कुर्वन्ति संग्रहम्।
आदिमध्यावसानेषु न त्यजन्ति च ते नृपम्।।३.५।।

राजा लोग कुलीन पुरुषों को अपने पास इसलिए रखते हैं क्योंकि ये लोग उनको आदि , मध्य और अंत तक उनका साथ नहीं छोड़ते।

३.४ दुर्जन और सर्प

दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जनः।
सर्पो दंशति काले तु दुर्जनस्तु पदे पदे।।३.४।।

दुर्जन और सर्प में सर्प अच्छा है क्योंकि साँप एकबार काटता है लेकिन दुर्जन पग पग पर काटता है।

३.३ मनुष्य को चाहिए

सत्कुले योजयेत्कन्यां पुत्रं विद्यासु योजयेत्।
व्यसने योजयेच्छत्रुं मित्रं धर्मे नियोजयेत्।।३.३।।

मनुष्य को चाहिए की वह अपनी कन्या किसी अच्छे कुल में व्याहे। पुत्र को विद्याभ्यास में लगा दे।  शत्रु को विपत्ति में फँसा दे और मित्र को धर्मकार्य में लगा दे।

३.२ बताता है

आचारः कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम्।
सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम्।।३.२।।

आचरण कुल को बताता है। भाषण देश का पता बताता है। आदर भाव प्रेम का परिचय देता है। शरीर भोजन का हाल बताता है।

३.१ दोष, पीड़ित और सुखी

कस्य दोषः कुले नास्ति व्याधिना केन पीडिताः।
व्यसनं केन संप्राप्तं कस्य सौख्यं निरन्तरम्।।३.१।।

किसके कुल में दोष नहीं है ?
कौन रोग से पीड़ित नहीं है ?
कौन सा ऐसा प्राणी है जो निरन्तर सुखी है ?
 

२.२० ये सब चीज़े भली लगती है

समाने शोभते प्रीतिः राज्ञि सेवा च शोभते।
वाणिज्यं व्यवहारेषु स्त्री दिव्या शोभते गृहे।।२.२०।।

ये सब चीज़े भली लगती है
  1. बराबर वालों के साथ मित्रता 
  2. राजा की सेवा 
  3. व्यवहार में बनियापन 
  4. घर के अन्दर स्त्री।

२.१९ बहुत शीघ्र विनाश हो जाता है

दुराचारी दूरादृष्टिर्दुरावासी च दुर्जनः।
यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीघ्रं विनश्यति।।२.१९।।

इन तीन प्रकार के मनुष्यों से जो मनुष्य मित्रता करता है, उसका बहुत शीघ्र विनाश हो जाता है। ये तीन प्रकार के मनुष्य हैं
  1. दुराचारी,
  2. व्यभिचारी,
  3. दूषित स्थान के निवासी।

२.१८ कार्य समाप्त होने पर

गृहीत्वा दक्षिणां विप्रास्त्यजन्ति यजमानकम्।
प्राप्तविद्यागुरुः शिष्यो दग्धारण्यं मृगास्तथा।।२.१८।।

ये तीनों कार्य समाप्त होने पर
  1. ब्राह्मण दक्षिणा लेकर यजमान को 
  2. विद्या प्राप्त कर लेने के बाद विद्यार्थी गुरु को 
  3. जले जंगल को बनैले जीव।
छोड़ देते हैं। 

२.१७ कार्य समाप्त होने पर

निर्द्धनं पुरुषं वेश्या प्रजा भग्नं नृपं त्यजेत्।
खगा वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चाभ्यागतो गृहम्।।२.१७।।

कुछ तरह के मनुष्य कार्य समाप्त होने पर दिये गए लोगों को त्याग देते हैं
  1. धनविहीन पुरुष को वेश्या 
  2. शक्तिहीन राजा को प्रजा 
  3. जिसका फल झड़ गया हो ऐसे वृक्ष को पक्षी 
  4. भोजन कर लेने पर अतिथि घर को।

२.१६ कुछ लोग और उनके बल

बलं विद्या च विप्राणां राज्ञां सैन्यं बलं तथा।
बलं वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां परिचर्यिका।।२.१६।।

कुछ लोग और उनके बल
  1. ब्राह्मणों का बल विद्या है।
  2. राजाओं का बल उनकी सेना है।
  3. वैश्यों का बल धन है।
  4. शूद्रों का बल द्विजाति की सेवा है।

२.१५ ये शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं

नदीतीरे च ये वृक्षाः परगेहेषु कामिनी।
मन्त्रिहीनाश्च राजानः शीघ्रं नश्यन्त्यसंशयम्।।२.१५।।

ये शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं
  1. नदी के तट पर लगे वृक्ष ,
  2. पराये घर रहने वाली स्त्री ,
  3. बिना मंत्री का राजा।

२.१४ अग्नि के बिना ही शरीर को जला डालती हैं

कान्ता - वियोगः स्वजनापमानो ऋणस्य शेषः कुनृपस्य सेवा।
दरिद्रभावो विषमा सभा च विनाग्निना ते प्रदहन्ति कायम्।।२.१४।।

ये बातें अग्नि के बिना ही शरीर को जला डालती हैं
  1. स्त्री का वियोग ,
  2. अपने जनों द्वारा अपमान ,
  3. कर्ज देने से बचा हुआ ऋण ,
  4. दुष्ट राजा की सेवा ,
  5. दरिद्रता और स्वार्थियों की सभा।

२.१३ बीते हुए दिनों को सार्थक करो

श्लोकेन वा तदर्द्धेन तदर्द्धाऽर्द्धाक्षरेण वा।
अवन्ध्यं दिवसं कुर्याद् दानाध्ययनकर्मभिः।।२.१३।।

किसी श्लोक या उसके आधे भाग या उसके आधे के भी आधे भाग का मनन करो। क्योंकि भारतीय महर्षियों का कहना यही है कि , जैसे भी हो दान, अध्ययन (स्वाध्याय) आदि सब कर्म करके बीते हुए दिनों को सार्थक करो, इन्हें यों ही न गुजर जाने दो।

२.१२ ताड़ना अधिक दे

लालनाद् बहवो दोषास्ताडनात् बहवो गुणाः।
तस्मात् पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्न तु लालयेत्।।२.१२।।

बच्चों को दुलार करने में दोष है और ताड़न करने में बहुत से गुण हैं।  इसलिए पुत्र और शिष्य को ताड़ना अधिक दे, दुलार न करें।

२.११ पिता पुत्र का बैरी

माता शत्रुः पिता बैरी येन बालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा।।२.११।।

जो माता अपने बेटे को पढ़ाती नहीं  उसी तरह उसकी शत्रु है, जिस प्रकार पुत्र को न पढ़ाने वाला पिता पुत्र का बैरी है। क्योंकि (इस तरह माता - पिता की नासमझी से वह पुत्र ) सभा में उसी प्रकार शोभित नहीं होता जिस प्रकार हंसों के बीच में बगुला।

२.१० कुल में पूजित होते हैं

पुत्राश्च विविधैः शीलैर्नियोज्याः सततं बुधैः।
नीतिज्ञाः शीलसम्पन्ना भवन्ति कुलपूजिताः।।२.१०।।

समझदार मनुष्य का कर्तव्य है कि , वह अपने पुत्रों को विविध प्रकार के शील की शिक्षा दे।  क्योंकि नीति को जानने वाले और शीलवान् पुत्र अपने कुल में पूजित होते हैं।

२.९ नहीं होता

शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवो नहि सर्वत्र चन्दनं न वने वने।।२.९।।

हर एक पहाड़ पर माणिक नहीं होता , सभी हाथियों के मस्तक में मोती नहीं होता।  सज्जन सर्वत्र नहीं होते और चन्दन सब जंगलों में नहीं होता । 

२.८ कष्टों से बढ़कर कष्ट

कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्टं च खलु यौवनम्।
कष्टात् कष्टतरं चैव परगेहे निवासनम्।।२.८।।

पहला कष्ट तो मुर्ख होना है, दूसरा कष्ट है जवानी और सब कष्टों से बढ़कर कष्ट है, पराये घर में रहना।

२. ७ गुप्त बात

मनसा चिन्तितं कार्यं वचसा न प्रकाशयेत्।
मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्ये चापि नियोजयेत्।।२.७।।

जो बात मन में सोचे, वह बात वचन से प्रकाशित न करें। उस गुप्त बात की मन्त्रणा द्वारा रक्षा करें और गुप्त ढंग से ही उसे काम में भी लावे।