मंगलवार, 15 मार्च 2016

३.१४ - ३.१७ कुपूत और सपूत

एकेनापि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना।
वासितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं तथा।।३.१४।।

जिस प्रकार एक फूले हुए वृक्ष के कारण पूरा वन सुगन्धित हो उठता है उसी प्रकार एक सपूत पुरे कुल को उज्जवल कर देता है।

एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वह्निना।
दह्यन्ते तद्वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं यथा।।३.१५।।

जंगल के एक ही सूखे और अग्नि से जलते हुए वृक्ष के कारण पूरा वन जल कर राख हो जाता है। उसी प्रकार एक कुपूत के कारण पूरा खानदान बदनाम हो जाता है।

एकेनापि सुपुत्रेण विद्यायुक्तेन साधुना।
आह्लादितं कुलं सर्वं यथा चन्द्रेण शर्वरी।।३.१६।।

एक ही सज्जन और विद्वान् पुत्र से सारा कुल आल्हादित हो उठता है जैसे चन्द्रमा के प्रकाश से रात्रि जगमगा उठती है।

कीं जातैर्बहुभिः पुत्रैः शोकसन्तापकारकैः।
वरमेकः कुलालम्बी यत्र विश्राम्यते कुलम्।।३.१७।।

शोक और सन्ताप देने वाले बहुत से पुत्रों के होने से क्या लाभ है? जब अपने कुल के अनुसार चलने वाला एक ही पुत्र बहुत है जहाँ सारा कुल विश्राम कर सके।

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