लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः ?
सत्यं यत्तपसा च किं शुचिमनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना।।१७.४।।
जिसके पास में लोभ है तो फिर और अवगुण की क्या आवश्यकता ?
यदि चुगली करने की आदत है तो और पापों की क्या जरुरत ?
यदि सच्चाई है तो और तपकी क्या आवश्यकता ?
यदि मन शुद्ध है तो तीर्थ करने की क्या जरूरत ?
सज्जनता है तो और गुणों की जरूरत नहीं , यदि अपना प्रभाव है तो श्रृंगार की कोई आवश्यकता नहीं , यदि अपने पास विद्या है तो धन की कोई आवश्यकता नहीं।
और यदि अपयश विद्यमान है तो मरने की क्या जरुरत है।
सत्यं यत्तपसा च किं शुचिमनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना।।१७.४।।
जिसके पास में लोभ है तो फिर और अवगुण की क्या आवश्यकता ?
यदि चुगली करने की आदत है तो और पापों की क्या जरुरत ?
यदि सच्चाई है तो और तपकी क्या आवश्यकता ?
यदि मन शुद्ध है तो तीर्थ करने की क्या जरूरत ?
सज्जनता है तो और गुणों की जरूरत नहीं , यदि अपना प्रभाव है तो श्रृंगार की कोई आवश्यकता नहीं , यदि अपने पास विद्या है तो धन की कोई आवश्यकता नहीं।
और यदि अपयश विद्यमान है तो मरने की क्या जरुरत है।
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