शुक्रवार, 25 मार्च 2016

१४.१९ चार बातें करने योग्य

त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम्।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यतः।।१४.१९।।

 दुष्टों का साथ छोड़ दो , भले लोंगों के समागम में रहो , अपने दिन और रात को पवित्र करके बिताओ और इस अनित्य संसार में नित्य ईश्वर का स्मरण करते रहो।


१४.१८ धर्म , धन , अन्न , गुरु का वचन और औषधि

धर्मं धनं च धन्यं च गुरोर्वचनमौषधम्।
सुगृहीतं च कर्त्तव्यमन्यथा तु न जीवति।।१४.१८।।

धर्म , धन , अन्न , गुरु का वचन और औषधि इन वस्तुओं को सावधानी के साथ अपनावे और उनके अनुसार चले।  जो ऐसा नहीं करता , वह जीता नहीं है।

१४.१७ कोयल कि आनन्दित करने वाली वाणी

तावन्मौनेन नियन्ते कोकिलैश्चैव वासराः।
यावत्सर्वजनानन्द - दायिनी वाक् प्रवर्तते।।१४.१७।।

कोयल तब तक चुपचाप दिन बिता देती है जबतक कि वह सब लोगों के मन को आनन्दित करने वाली वाणी नहीं बोलती है।

१४.१६ इन बातों को किसी से न जाहिर करें

सुसिद्धमौषधं धर्म गृहच्छिद्रं च मैथुनम्।
कुभुक्तं कुश्रुतं चैव मतिमान्न प्रकाशयेत्।।१४.१६।।

बुद्धिमान् को चाहिए कि , इन बातों को किसी से न जाहिर करें - अच्छी तरह तैयार की हुई औषधि , धर्म , अपने घर का दोष , मैथुन , दूषित भोजन और निंद्य किंवदन्ती वचन।

१४.१५ तीन जीव तीन दृष्टि

एक एव पदार्थस्तु त्रिधा भवति वीक्षितः।
कुणपं कामिनी मांसं योगिभिः कामिभिः श्वभिः।।१४.१५।।

एक स्त्री के शरीर को तीन जीव तीन दृष्टि से देखते हैं - योगी उसे बदबूदार मुर्दे के रूप में देखते हैं , कामी उसे कामिनी समझता है और कुत्ते उसे मांसपिण्ड जानता है।

१४.१४ पण्डित

 प्रस्तावसदृशं वाक्यं प्रभावसदृशं प्रियम्।
आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स पण्डितः।।१४.१४।।

जो मनुष्य प्रसंगानुसार बात , प्रकृति के अनुकूल प्रेम और अपनी शक्त्ति के अनुसार क्रोध करना जानता है , वही पण्डित है।

१४.१३ पन्द्रह मुखवाले राक्षस

यदिच्छसि वशीकर्त्तुं जगदेकेन कर्मणा।
पुरः पञ्चदशास्येभ्यो गां चरन्तीं निवारय।।१४.१३।।

यदि तुम केवल एक ही काम से सारे संसार को अपने वश में करना चाहते हो , तो पन्द्रह मुखवाले राक्षस के सामने चरती हुई इन्द्रियरूपी गैयों को उधर से हटा लो। ये पन्द्रह मुख कौन हैं - आँख , नाक , कान , जीभ  और त्वचा ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ।  मुख , पाँव , लिंग  और गुदा ये पाँच कर्मेन्द्रिया। रूप , रस , गन्ध , शब्द और स्पर्श , ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं।

१४.१२ गुण और धर्म

स जीवति गुणा यस्य यस्य धर्मः स जीवति।
गुण  - धर्मविहीनस्य जीविं निष्प्रयोजनम्।।१४.१२।।

जो गुणी है , उसका जीवन सफल है या जो धर्मात्मा है , उसका जन्म सार्थक है।  इसके विपरीत गुण और धर्म से विहीन जीवन निष्प्रयोजन है।

१४.११ आग , पानी , मूर्ख , सर्प , नारी और राज परिवार

अग्निरापः स्त्रियो मूर्खाः सर्पो राजकुलानि च।
नित्यं यत्नेन सेव्यानि सद्यः प्राणहराणि षट्।।१४.११।।

आग , पानी , मूर्ख , सर्प , नारी  और राज परिवार इनकी यत्न के साथ आराधना करें।  क्योंकि ये सब तुरन्त प्राण लेने वाले जीव हैं।

१४.१० राजा , अग्नि , गुरु और स्त्रियाँ

अत्यासन्ना विनाशाय दूरस्था न फलप्रदाः।
सेव्यतां मध्यभागेन राजवह्निगुरुस्त्रियः।।१४.१०।।

राजा , अग्नि , गुरु और स्त्रियाँ इनके पास अधिक रहने पर विनाश निश्चित है और दूर रहा जाय तो कुछ मतलब नहीं निकलता।  इसलिए इन चारों की आराधना ऐसे करे कि न ज्यादा पास रहे न ज्यादा दूर।

१४.९ मीठी बातें

यस्माच्च प्रियमिच्छेत्तु तस्य ब्रूयात् सदा प्रियम्।
व्याधो मृगवधं गन्तुं गीतं गायति सुस्वरम् ।।१४.९।।

मनुष्य को चाहिए कि , जिस - किसी से अपना भला चाहता हो , तो उससे हमेशा मीठी बातें करें।  क्योंकि बहेलिया जब हिरन का शिकार करने जाता है तो बड़े मीठे स्वर से गाता है।

१४.८ दूर रहकर भी दूर

दुरस्थोऽपि न दूरस्थो यो यस्य मनसि स्थितः।
यो यस्य हृदये नास्ति समीपस्थोऽपि दूरतः।।१४.८।।

जो मनुष्य जिसके हृदय में स्थान किये है , वह दूर रहकर भी दूर नहीं है।  जो जिसके हृदय में नहीं रहता , वह समीप रहने पर भी दूर है।  

१४.७ दान , तप , वीरता , विज्ञान और नीति

दाने तपसि शौर्ये वा विज्ञाने विनये नये।
विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा।।१४.७।।

दान , तप , वीरता , विज्ञान और नीति इनके विषय में कभी किसी को विस्मित होना ही नहीं चाहिये।  क्योंकि पृथ्वी में बहुत से रत्न भरे पड़े हैं।

१४.६ पछतावे के समय

उत्पन्नपश्चात्तापस्य बुद्धिर्भवति यादृशी।
तादृशी यदि पूर्वं स्यात् कस्य स्यान्न महोदयः।।१४.६।।

कोई बुरा काम करने पर पछतावे के समय मनुष्य की जैसी बुद्धि रहती है , वैसी यदि पहले ही से रहे तो कौन मनुष्य उन्नत न हो जाय।

१४.५ मोक्षपद

धर्माख्याने श्मशाने च रोगिणां या मतिर्भवेत्।
सा सर्वदैव तिष्ठेच्चेत् को न मुच्येत बन्धनात्।।१४.५।।

कोई धार्मिक आख्यान सुनने पर , श्मशान में और रुग्णावस्था में मनुष्य की जैसी बुद्धि रहती है , वैसी यदि हमेशा रहे तो कौन मनुष्य मोक्षपद न प्राप्त कर ले ?

१४.४ पात्र के प्रभाव

जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि।
प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारं वस्तुशक्त्तितः।।१४.४।।

जल में तेल , दुष्ट मनुष्य में कोई गुप्त बात , सुपात्र में थोड़ा भी दान और समझदार मनुष्य के पास शास्त्र , थोड़े होते हुए भी पात्र के प्रभाव से तुरन्त फैल जाते हैं।

१४.३ सङ्गठित बल

बहूनां चैव सत्त्वानां समवायो रिपुञ्जयः।
वर्षन् धाराधरो मघस्तृणैरपि निवार्यते।।१४.३।।

बहुत प्राणियों का सङ्गठित बल शत्रु को परास्त कर देता है , प्रचण्ड वेग के साथ बरसते हुए मेघ को सङ्गठन के बल से क्षुद्र तिनके हरा देते हैं।

१४.२ गया हुआ यह शरीर

पुनर्वित्तं पुनर्मित्रं पुनर्भार्या पुनर्मही।
एतत्सर्व पुनर्लभ्यं न शरीरं पुनः पुनः।।१४.२।।

गया हुआ धन वापस मिल सकता है , रूठा हुआ मित्र भी राजी किया जा सकता है , हाथ से निकली हुई स्त्री भी वापस आ सकती है और छीनी हुई जमीन भी फिर मिल सकती है , पर गया हुआ यह शरीर वापस नहीं मिल सकता।

१४.१ अपराध रूपी वृक्ष

आत्मापराधवृक्षस्य फलोन्येतानि देहिनाम् ।
दारिद्र्य - रोग  - दुःखानि बन्धनव्यसनानि।।१४.१।।

मनुष्य के अपने द्वारा पल्लवित अपराध रूपी वृक्ष के ये ही फल फलते हैं - दरिद्रता , रोग , दुःख , बन्धन (कैद) और व्यसन।

१३.२१ अन्न , जल और मीठी -मीठी बातें

पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि अन्नमापः सुभाषितम्।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंख्या विधीयते।।१३.२१।।

सच पूछो तो पृथ्वी भर में तीन ही रत्न हैं - अन्न , जल और मीठी -मीठी  बातें।  लेकिन बेवकूफ लोग पत्थर के टुकड़ों को ही रत्न मानते हैं।

१३. २० सज्जन लोग

युगान्ते प्रचलेन्मेरू: कल्पान्ते सप्त सागराः।
साधवः प्रतिपन्नार्थान्न चलन्ति कदाचन।।१३. २०।।

युग का अन्त हो जाने पर सुमेरु पर्वत डिग जाता है।  कल्प का अन्त होने पर सातों सागर भी चंचल हो उठते हैं, पर सज्जन लोग स्वीकार किये हुये मार्ग से विचलित नहीं होते।

१३.१९ एक अक्षर देने वाले

एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुं नाऽभिवन्दते।
श्वानयोनिशतं भुक्त्वा चाण्डालेष्वभिजायते।।१३.१९।।

एक अक्षर देने वाले को भी जो मनुष्य अपना गुरु नहीं मानता तो वह सैकड़ों बार कुत्ते की योनि में रह - रह कर अन्त में चाण्डाल होता है।  

१३.१८ समझ - बूझ कर

कर्मायत्तं फलं पुंसां बुद्धिः कर्मानुसारिणी।
तथाऽपि सुधियश्चार्याः  सुविचार्यैव कुर्वते।।१३.१८।।

यद्यपि प्रत्येक मनुष्य को कर्मानुसार ही फल प्राप्त होता है और बुद्धि भी कर्मानुसार ही बनती है।  फिर भी बुद्धिमान लोग अच्छी तरह समझ  - बूझ कर ही कोई काम करते हैं।

१३.१७ गुरु के पास विद्यमान् विद्या

यत् खनित्वा खनित्रेण भूतले वारि विन्दति।
तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति।।१३.१७।।

जैसे फावड़े से खोदने पर पृथ्वी से जल निकल आता है।  उसी तरह किसी गुरु के पास विद्यमान् विद्या उसकी सेवा करने से प्राप्त हो जाती है।

१३.१६ कार्य अव्यवस्थित

 अनवस्थिकार्यस्य न जने न वने सुखम्।
जनो दहति संसर्गाद्वनं सङ्गविवर्जनात्।।१३.१६।।

जिसका कार्य अव्यवस्थित रहता है उसे न समाज में सुख है , न वन में।  समाज में संसर्ग से दुखी रहता है तो वन मे संसर्ग त्याग से दुःखी रहेगा।

१३.१५ कर्म (भाग्य)

यथा धेनुसहस्त्रेषु वत्सो गच्छति मातरम्।
तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति।।१३.१५।।

जैसे हज़ारों गौओं में बछड़ा अपनी ही माँ के पास जाता है।  उसी तरह प्रत्येक मनुष्य का कर्म (भाग्य) अपने स्वामी के ही पास जा पहुँचता है।

१३.१४ मन के अनुसार सुख

ईप्सितं मनसः सर्वं कस्य सम्पद्यते सुखम्।
दैवायत्तं यतः सर्वं तस्मात् सन्तोषमाश्रयेत्।।१३.१४।।

अपने मन के अनुसार सुख किसे मिलता है।  क्योंकि संसार का सब काम दैव के अधीन है। इसलिये जितना सुख प्राप्त हो जाय , उतने में ही सन्तुष्ट रहो।

१३.१३ परमात्मज्ञान

देहाभिमानगलिते ज्ञानेन परमात्मनः।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः।।१३.१३।।

परमात्मज्ञान से मनुष्य का जो देहाभिमान गल जाता है तो फिर जहाँ कहीं भी उसका मन जाता है तो उसके लिए सर्वत्र समाधि ही है।

१३.१२ मन

बन्धाय विषयासङ्गं मुक्त्यै निर्विषयं मनः।
मन एव मनुष्याणां करणं बन्ध - मोक्षयोः।।१३.१२।।

विषयों में मन को लगाना ही बन्धन है और विषयों से मन को हटाना ही मुक्त्ति है। भाव यह कि , मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का हेतु है।

१३.११ यशरूपी अग्नि

दह्यमानाः सुतीव्रेण नीचाः परयशोऽग्निना।
अशक्त्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते।।१३.११।।

नीच प्रकृति के लोग औरों के यशरूपी अग्नि से जलते रहते हैं , उस पद तक तो पहुँचने की सामर्थ्य उनमें रहती नहीं।  इसलिए वे उसकी निन्दा करने लग जाते हैं।  

१३.१० चार पदार्थ

धर्मार्थकाममोक्षणां यस्यैकोऽपि न विद्यते।
अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम्।।१३.१०।।

धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष , इन चार पदार्थों में - से एक पदार्थ भी जिसके पास नहीं हैं , तो बकरी के गले में लटकनें वाले स्तनों के समान उसका जन्म ही निरर्थक है।  

१३.९ धर्मविहीन और धर्मात्मा

जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम्।
मृतो धर्मेण संयुक्त्तो दीर्घजीवी न संशयः।।१३.९।।

धर्मविहीन मनुष्य को मैं जीते मुर्दे की तरह मानता हूँ। जो धर्मात्मा था , पर मर गया तो वह वास्तव में दीर्घजीवी था।
 

१३.८ जैसा राजा वैसी प्रजा

राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः।
राजानमनुवर्तन्ते यथा  राजा तथा प्रजाः।।१३.८।।

राजा अगर धर्मात्मा होता है तो उसकी प्रजा भी धर्मात्मा होती है , राजा पापी होता है तो उसकी प्रजा भी पापी होती है।  सम राजा होता है तो प्रजा भी सम ही होती है। कहने का भाव यह है कि सब राजा का ही अनुसरण करते हैं।  जैसा राजा होगा , उसकी प्रजा भी वैसी ही होगी।

१३.७ आनेवाली विपत्ति

अनागतविधाता च प्रत्युत्पन्नमतिस्तथा।
द्वावेतौ सुखमेधेते यद्भविष्यो विनश्यति।।१३.७।।

जो मनुष्य भविष्य में आनेवाली विपत्ति से होशियार है और जिसकी बुद्धि समय पर काम कर जाती है ये दो मनुष्य आनन्द से आगे बढ़ते जाते हैं।  इनके विपरीत जो भाग्य में लिखा होगा , जो यह सोचकर बैठने वाले हैं उनका नाश निश्चित है।

१३.६ स्नेह

यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम्।
स्नेहमूलानी दुःखानि तानि त्यक्त्वा वसेत्सुखम्।।१३.६।।

जिसके हृदय में स्नेह (प्रीति ) है , उसको भय है।  जिसके पास स्नेह है , उसको दुःख है।  जिसके हृदय में स्नेह है, उसी के पास तरह - तरह के दुःख रहते हैं।  जो इसे त्याग देता है वह सुख से रहता है।

१३.५ नम्र

अहो बता विचित्राणी चरितानि महात्मनाम्।
अक्ष्मीं तृणाय मन्यन्ते तद्भारेण नमन्ति च।।१३.५।।

अहो ! महात्माओं के चरित्र , भी विचित्र होते हैं।  वैसे तो वे लक्ष्मी को तिनके की तरह समझते हैं। और जब वह आ ही जाती हैं तो इनके भार से दबकर नम्र हो जाते हैं।

१३.४ आयु , कर्म , सम्पत्ति , विद्या और मरण

आयुः कर्म च वित्तं विद्या निधनमेव च।
पञ्चैतानि च सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः।।१३.४।।

आयु , कर्म , सम्पत्ति , विद्या और मरण ये पाँच बातें तभी तय हो जाती हैं , जब कि मनुष्य गर्भ में ही रहता है।

१३.३ स्वभाव देखकर प्रसन्न

स्वभावेन हि तुष्यन्ति देवाः सत्पुरुषाः पिता।
ज्ञातयः स्नान - पानाभ्यां वाक्यदानेन पण्डिताः।।१३.३।।

देवता , भले मानुष और पिता ये तीन स्वभाव देखकर प्रसन्न होते हैं। भाई वृन्द स्नान और पान से तथा वाक्य पालन से पण्डित लोग खुश होते हैं।

१३.२ सामने की बात

गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत्।
वर्तमानेन कालेन प्रवर्त्तन्ते विचक्षणाः।।१३.२।।

जो बात बीत गयी उसके लिए सोच न करो।  और न आगे होने वाली के ही लिए चिन्ता करो।  समझदार लोग सामने की बात को ही हल करने की चिन्ता करते हैं।

१३.१ उज्जवल कर्म

मुहूर्त्तमपि  जीवेच्च नरः शुक्लेन कर्मणा।
न कल्पमपि कष्टेन लोकद्वयविरोधिना।।१३.१।।

मनुष्य यदि उज्जवल कर्म करके एक दिन भी जिन्दा रहे तो उसका जीवन सुफल है।  इसके बदले इहलोक और परलोक इन दोनों के विरुद्ध कार्य करके कल्प भर जीवे तो वह जीना अच्छा नहीं है।