शनिवार, 26 मार्च 2016

१५. १९ पुण्य से यश

उर्व्यां कोऽपि महीधरो लघुतरो दोर्भ्यां घृतो लीलया
तेन त्वं दिवि भूतले च सततं गोवर्धनो गीयसे।
त्वां  त्रैलोक्यधरं वहामि कुचयोरग्रेण तद् गण्यते
किं वा केशव भाषणेन बहुना पुण्यैर्यशो लभ्यते।।१५. १९।।

रुक्मिणी जी भगवान् से कहती हैं , हे केशव ! आपने एक छोटे से पहाड़ को दोनों हाथों से उठा लिया , इसलिये स्वर्ग और पृथ्वी दोनों लोकों में गोवर्धनधारी कहे जाने लगे।  लेकिन तीनों लोकों को धारण करने वाले आपको मैं अपने कुचों के अगले भाग से ही उठा लेती हूँ , फिर भी उसकी कोई गिनती नहीं होती। हे नाथ ! बहुत कुछ कहने से कोई प्रयोजन नहीं , यही समझ लीजिये कि बड़े पुण्य से यश प्राप्त होता है।  

१५.१८ कुलीन पुरुष, शील और गुण

छिन्नोऽपि  चन्दनतरुर्न जहाति गन्धं
वृद्धोऽपि  वारणपतिर्न जहाति लीलाम्।
यन्त्रार्पितो मधुरतां न जहाति चेक्षुः
क्षीणोऽपि  न त्यजति शीलगुणान् कुलीनः।।१५.१८।।

काटे जाने पर भी चन्दन का वृक्ष अपनी सुगन्धि नहीं छोड़ता , बूढ़ा हाथी भी खेलवाड़ नहीं छोड़ता , कोल्हू में पेरे जाने पर भी ईख मिठास नहीं छोड़ता , ठीक इसी प्रकार कुलीन पुरुष निर्धन होकर भी अपना शील और गुण नहीं छोड़ता।  

१५.१७ प्रेम की डोर

बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि प्रेमरज्जुकृतबन्धनमन्यत्।
दारुभेद - निपुणोऽपि षडङ्घ्रिर्नीष्क्रियो भवति पंकजकोशे।।१५.१७।।

वैसे तो बहुत से बन्धन हैं , पर प्रेम की डोर का बन्धन कुछ और ही है।  काठको काटने में निपुण भ्रमर कमलदल को काटने में असमर्थ होकर उसमें बँध जाता है।  

१५.१६ दरिद्र ब्राह्मण

पितः क्रुद्धेन तातश्चरणतलहतो वल्लभो येन रोषा -
दाबाल्याद्विप्रवर्यैः स्ववदनविवरे धार्यते वैरिणी मे।
गेहं में छेदयन्ति प्रतिदिवसमुमाकान्तपूजनिमित्तं
तस्मात्खिन्ना सदाऽहं द्विजकुलनिलयं नाथयुक्तं त्यजामि।।१५.१६।।

ब्राह्मण अधिकांश दरिद्र दिखाई देते हैं।  कवि कहता है कि , इस विषय पर किसी प्रश्नोत्तर के समय लक्ष्मीजी भगवान् से कहती हैं - जिसने क्रुद्ध होकर मेरे पिता को पी लिया , मेरे स्वामी को लात से मारा , बाल्यकाल से ही जो रोज ब्राह्मण लोग वैरिणी (सरस्वती ) को अपने मुख - विवर में आसन दिये रहते हैं , शिवजी के पूजन के लिये जो रोज मेरा घर (कमल) उजाड़ा करते हैं , इन्हीं कारणों से नाराज होकर हे नाथ ! मैं सदैव ब्राह्मण का घर छोड़े रहती हूँ - वहाँ जाती ही नहीं।  

१५.१५ परदेश

अलिरयं नलिनीदलमध्यगः कमलिनीमकरन्दमदालसः।
विधिवशात्परदेशमुपागतः कुटजपुष्परसं बहु मन्यते।।१५.१५।।

यह एक भौंरा है , जो पहले कमलदल के ही बीच में कमलींनी का बास लेता रहता था , संयोगवश वह अब परदेश में जा पहुँचा है , वहाँ वह कौरैया के पुष्परस को ही बहुत समझता है।

१५.१४ पराये घर

अयममृतनिधानं नायकोऽप्यौषधीनां अमृतमयशरीरः कान्तियुक्तोऽपि  चन्द्रः।
भवति विगतरश्मिर्मण्डलं प्राप्य भानोः परसदननिविष्टः को लघुत्वं न याति।।१५.१४।।  

यद्यपि चन्द्रमा अमृत का भण्डार है , औषधियों का स्वामी है , स्वयं अमृतमय है और कान्तिमान् है।  फिर भी जब वह सूर्य के मण्डल में पड़ जाता है तो किरण रहित हो जाता है।  पराये घर जाकर भला कौन ऐसा है कि जिसकी लघुता न साबित होती हो।  

१५.१३ द्विजमयी नौका

धन्या द्विजमयी नौका विपरीता भवार्णवे।
तरन्त्यधोगताः सर्वे उपरिस्थाः पतन्त्यधः।।१५.१३।।

यह द्विजमयी नौका धन्य है कि , जो इस संसाररूपी सागर में उलटे तौर पर चलती है , जो इससे नीचे (नम्र ) रहते हैं , वे तर जाते हैं और जो ऊपर (उद्धत ) रहते हैं।  वे नीचे चले जाते हैं।

१५.१२ अपनी समझ

पठन्ति चतुरो वेदान् धर्मशास्त्राण्यनेकशः।
आत्मानं नैव जानन्ति दर्वी पाकरसं यथा।।१५.१२।।

कितने लोग चारों वेद और बहुत से धर्मशास्त्र पढ़ जाते हैं , पर वे अपने को नहीं समझ पाते , जैसे की कलछुल पाक में रहकर भी पाक का स्वाद नहीं जान सकती।


१५.११ अभ्यागतों की सेवा

दूरागतं पथि श्रान्तं वृथा च गृहमागतम्।
अनर्चयित्वा यो भुड्क्ते स वै चाण्डाल उच्यते।।१५.११।।

जो दूर से आ रहा हो , थका हो इन अभ्यागतों की सेवा किये बिना जो भोजन कर लेता है उसे चाण्डाल कहना चाहिए।

१५.१० मतलब की बात

अनन्तशास्त्रं बहुलाश्च विद्याः अल्पं च कालो बहुविघ्नता च।
यत्सारभूतं तदुपासनीयं हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात्।।१५.१०।।

शास्त्र अनन्त हैं , बहुत सी विद्यायें हैं , मनुष्य को उचित है कि जैसे हंस सबको छोड़कर पानी से दूध केवल लेता है , उसी तरह जो अपने मतलब की बात हो , उसे ले लें बाकी सब छोड़ दें।

१५.९ मूल्य

मणिर्लुण्ठति पादाग्रे काचः शिरसि धार्यते।
क्रयविक्रयवेलायां काचः काचो मणिर्मणिः।।१५.९ ।।

वैसे मणि पैरों तले लुढ़के और काँच माथे पर रखा जाय तो इसमें उन दोनों के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता।  पर जब वे दोनों बाजार में बिकने आयेंगे और उनका क्रय - विक्रय होने लगेगा तब काँच काँच ही रहेगा और मणि मणि ही।

१५.८ भोजन, प्रेम, समझदारी और धर्म

तभ्दोजनं यद् द्विजभुक्तशेषं तत्सौहृदं यत् क्रियते परस्मिन्।
सा प्राज्ञता या न करोति पापं दम्भं वीना यः क्रियते स धर्मः।।१५.८।।

वही भोजन भोजन है जो ब्राह्मणों के जीम लेने के बाद बचा हो , वही प्रेम प्रेम है जो स्वार्थ वश अपने ही लोगों में न किया जाकर औरों पर भी किया जाय।  वही विज्ञता ( समझदारी ) है कि जिसके प्रभाव से कोई पाप न हो सके और वही धर्म है कि जिसमें आडम्बर न हो।

१५.७ योग्य अयोग्य

अयुक्तं स्वामिनो युक्तं युक्तं नीचस्य दूषणम्।
अमृतं राहवे मृत्युर्विषं शङ्कर - भूषणम्।।१५.७।।

अयोग्य कार्य भी यदि कोई प्रभावशाली व्यक्त्ति कर गुजरे तो वह उसके लिए योग्य हो जाता है और नीच प्रकृति का मनुष्य यदि उत्तम काम भी करता है तो वह उसके करने से अयोग्य साबित हो जाता है।  जैसे अमृत भी राहु के लिए मृत्यु का कारण बन गया और विष भी शिवजी के कण्ठका श्रिङ्गार हो गया।

१५.६ अन्याय से कमाया हुआ धन

अन्यायोपार्जितं द्रव्यं दश वर्षाणि तिष्ठति।
प्राप्ते एकादशे वर्षे समूलं च विनश्यति।।१५.६।।

अन्याय से कमाया हुआ धन केवल दस वर्ष तक टिकता है , ग्यारहवाँ वर्ष लगने पर वह मूल धन के साथ नष्ट हो जाता है।

१५.५ धन ही मनुष्य का बन्धु

त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं दाराश्च सुहृज्जनाश्च।
तं चाऽर्थवन्त पुनराश्रयन्तं ह्यर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धुः।।१५.५।।

निर्धन मित्र को मित्र , स्त्री , सेवक और सगे - सम्बन्धी छोड़ देते हैं और वही जब फिर धनी हो जाता है तो वह लोग उसके साथ हो लेते हैं।  मतलब यह कि संसार में धन ही मनुष्य का बन्धु है।

१५.४ लक्ष्मी

कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणं बह्वाशिनं निष्ठुरभाषिणं  च।
सूर्योदये वाऽस्तमिते शयानं विमुञ्चति श्रीर्यदि चक्रपाणिः।।१५.४।।

मैले कपड़े पहननेवाला , मैले दाँतवाला , भुक्खड़ , नीरस बात करनेवाला और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय तक सोनेवाला यदि ईश्वर ही हो तो उसे भी लक्ष्मी त्याग देती हैं।  

१५.३ दुष्ट मनुष्य और कण्टक

खलानां कण्टकानां च द्विविधैव प्रतिक्रिया।
उपानद् मुखभङ्गो वा दूरतैव विसर्जनम्।।१५.३।।

दुष्ट मनुष्य और कण्टक , इन दोनों के प्रतिकार के दो ही मार्ग हैं।  या तो उनके लिए पनही ( जूते ) का उपयोग किया जाय या तो उन्हें दूर ही से त्याग दें।

१५.२ गुरु का एक अक्षर

 एकमेवाक्षरं यस्तु गुरुः शिष्यं प्रबोधयेत्।
पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद् दत्त्वा चाऽनृणी भवेत्।।१५.२।।

यदि गुरु एक अक्षर भी बोलकर शिष्य को उपदेश दे देता है तो पृथ्वी में कोई ऐसा द्रव्य है ही नहीं जिसे देकर उस गुरु से उऋण हुआ जाय।

 

१५.१ दया

 यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु।
तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटाभस्मलेपनै:।।१५.१।।

जिसका चित्त दया के कारण द्रवीभूत हो जाता है तो उसे फिर ज्ञान , मोक्ष , जटाधारण तथा भस्मलेपन की क्या आवश्यकता है ?