पितः क्रुद्धेन तातश्चरणतलहतो वल्लभो येन रोषा -
दाबाल्याद्विप्रवर्यैः स्ववदनविवरे धार्यते वैरिणी मे।
गेहं में छेदयन्ति प्रतिदिवसमुमाकान्तपूजनिमित्तं
तस्मात्खिन्ना सदाऽहं द्विजकुलनिलयं नाथयुक्तं त्यजामि।।१५.१६।।
ब्राह्मण अधिकांश दरिद्र दिखाई देते हैं। कवि कहता है कि , इस विषय पर किसी प्रश्नोत्तर के समय लक्ष्मीजी भगवान् से कहती हैं - जिसने क्रुद्ध होकर मेरे पिता को पी लिया , मेरे स्वामी को लात से मारा , बाल्यकाल से ही जो रोज ब्राह्मण लोग वैरिणी (सरस्वती ) को अपने मुख - विवर में आसन दिये रहते हैं , शिवजी के पूजन के लिये जो रोज मेरा घर (कमल) उजाड़ा करते हैं , इन्हीं कारणों से नाराज होकर हे नाथ ! मैं सदैव ब्राह्मण का घर छोड़े रहती हूँ - वहाँ जाती ही नहीं।
दाबाल्याद्विप्रवर्यैः स्ववदनविवरे धार्यते वैरिणी मे।
गेहं में छेदयन्ति प्रतिदिवसमुमाकान्तपूजनिमित्तं
तस्मात्खिन्ना सदाऽहं द्विजकुलनिलयं नाथयुक्तं त्यजामि।।१५.१६।।
ब्राह्मण अधिकांश दरिद्र दिखाई देते हैं। कवि कहता है कि , इस विषय पर किसी प्रश्नोत्तर के समय लक्ष्मीजी भगवान् से कहती हैं - जिसने क्रुद्ध होकर मेरे पिता को पी लिया , मेरे स्वामी को लात से मारा , बाल्यकाल से ही जो रोज ब्राह्मण लोग वैरिणी (सरस्वती ) को अपने मुख - विवर में आसन दिये रहते हैं , शिवजी के पूजन के लिये जो रोज मेरा घर (कमल) उजाड़ा करते हैं , इन्हीं कारणों से नाराज होकर हे नाथ ! मैं सदैव ब्राह्मण का घर छोड़े रहती हूँ - वहाँ जाती ही नहीं।
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