उर्व्यां कोऽपि महीधरो लघुतरो दोर्भ्यां घृतो लीलया
तेन त्वं दिवि भूतले च सततं गोवर्धनो गीयसे।
त्वां त्रैलोक्यधरं वहामि कुचयोरग्रेण तद् गण्यते
किं वा केशव भाषणेन बहुना पुण्यैर्यशो लभ्यते।।१५. १९।।
रुक्मिणी जी भगवान् से कहती हैं , हे केशव ! आपने एक छोटे से पहाड़ को दोनों हाथों से उठा लिया , इसलिये स्वर्ग और पृथ्वी दोनों लोकों में गोवर्धनधारी कहे जाने लगे। लेकिन तीनों लोकों को धारण करने वाले आपको मैं अपने कुचों के अगले भाग से ही उठा लेती हूँ , फिर भी उसकी कोई गिनती नहीं होती। हे नाथ ! बहुत कुछ कहने से कोई प्रयोजन नहीं , यही समझ लीजिये कि बड़े पुण्य से यश प्राप्त होता है।
तेन त्वं दिवि भूतले च सततं गोवर्धनो गीयसे।
त्वां त्रैलोक्यधरं वहामि कुचयोरग्रेण तद् गण्यते
किं वा केशव भाषणेन बहुना पुण्यैर्यशो लभ्यते।।१५. १९।।
रुक्मिणी जी भगवान् से कहती हैं , हे केशव ! आपने एक छोटे से पहाड़ को दोनों हाथों से उठा लिया , इसलिये स्वर्ग और पृथ्वी दोनों लोकों में गोवर्धनधारी कहे जाने लगे। लेकिन तीनों लोकों को धारण करने वाले आपको मैं अपने कुचों के अगले भाग से ही उठा लेती हूँ , फिर भी उसकी कोई गिनती नहीं होती। हे नाथ ! बहुत कुछ कहने से कोई प्रयोजन नहीं , यही समझ लीजिये कि बड़े पुण्य से यश प्राप्त होता है।
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