हस्तौ दान - विवर्जितौ श्रुतिपुटौ सारस्वतद्रोहिणौ
नेत्रे साधुविलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थं गतौ।
अन्यायार्जित - वित्तपूर्णमुदरं गर्वेण तुङ्गं शिरो
रे रे जम्बुक ! मुञ्च मुञ्च सहसा नीचं सुनिन्द्यं वपुः।।१२.४।।
जिसके दोनों हाथ दान विहीन हैं , दोनों कान विद्याश्रवण से पराङ्मुख हैं नेत्र सज्जनों का दर्शन नहीं करते और पैर तीर्थों का पर्यटन नहीं करते। जो अन्याय से अर्जित धन से पेट पालते हैं और गर्व से सिर ऊँचा करके चलते हैं , ऐसे मनुष्यों का रूप धारण किये हुए ऐ सियार ! तू झटपट अपने इस नीच और निन्दनीय शरीर को छोड़ दे।
नेत्रे साधुविलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थं गतौ।
अन्यायार्जित - वित्तपूर्णमुदरं गर्वेण तुङ्गं शिरो
रे रे जम्बुक ! मुञ्च मुञ्च सहसा नीचं सुनिन्द्यं वपुः।।१२.४।।
जिसके दोनों हाथ दान विहीन हैं , दोनों कान विद्याश्रवण से पराङ्मुख हैं नेत्र सज्जनों का दर्शन नहीं करते और पैर तीर्थों का पर्यटन नहीं करते। जो अन्याय से अर्जित धन से पेट पालते हैं और गर्व से सिर ऊँचा करके चलते हैं , ऐसे मनुष्यों का रूप धारण किये हुए ऐ सियार ! तू झटपट अपने इस नीच और निन्दनीय शरीर को छोड़ दे।
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