दूतो न सञ्चरति खे न चलेच्च वार्त्ता पूर्वं न जल्पितमिदं न च सङ्गमोऽस्ति।
व्योम्नि स्थितं रविशशिग्रहणं प्रशस्तं जानाति यो द्विजवरः स कथं न विद्वान्।।९.५।।
आकाश में न कोई दूत जा सकता है , न बातचीत ही हो सकती है , न पहले से किसी ने बता रखा है , न किसी से भेंट ही होती है , ऐसी परिस्थिति में आकाशचारी सूर्य , चन्द्रमा का ग्रहण - समय जो पण्डित जानते हैं , वे क्यों कर विद्वान् न माने जायँ ?
व्योम्नि स्थितं रविशशिग्रहणं प्रशस्तं जानाति यो द्विजवरः स कथं न विद्वान्।।९.५।।
आकाश में न कोई दूत जा सकता है , न बातचीत ही हो सकती है , न पहले से किसी ने बता रखा है , न किसी से भेंट ही होती है , ऐसी परिस्थिति में आकाशचारी सूर्य , चन्द्रमा का ग्रहण - समय जो पण्डित जानते हैं , वे क्यों कर विद्वान् न माने जायँ ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें