बुधवार, 16 मार्च 2016

४.१९ देवता

अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्।
प्रतिमा त्वल्पबुद्धिनां सर्वत्र समदर्शिनाम्।।४.१९।।

द्विजातियों के लिए अग्नि देवता हैं। मुनियों का हृदय ही देवता है। साधारण बुद्धिवालों के लिए प्रतिमायें ही देवता हैं और समदर्शी के लिये पूरा संसार देवमय है।

४.१८ इन बातों को बार - बार सोचते रहना चाहिये

कः कालः कानि मित्राणि को देशः कौ व्ययागमौ।
कस्याऽडं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः।।४.१८।।

यह कैसा समय है ?
मेरे कौन - कौन मित्र हैं ?
यह कैसा देश है ?
इस समय हमारी क्या आमदनी और क्या खर्च है ?
मै किसके अधीन हूँ ? और
मुझमे कितनी शक्ति है  ?
इन बातों को बार - बार सोचते रहना चाहिये।  

४.१७ बुढापा

अध्वा जरा मनुष्याणां वाजिनां बन्धनं जरा।
अमैथुनं जरा स्त्रीणां वस्त्राणामातपं जरा।।४.१७।।

मनुष्यों के लिए रास्ता चलना बुढ़ापा है।
घोड़े के लिए बन्धन बुढ़ापा है।
स्त्रियों के लिए मैथुन का आभाव बुढ़ापा है।
वस्त्रों के लिए घाम बुढापा है।

४.१६ त्याग दें

त्यजेर्द्धर्मं दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत्।
त्यजेत्क्रोधमुखं भार्यां निःस्नेहान् बान्धवांस्त्यजेत्।।४.१६।।

जिस धर्म में दया का उपदेश न हो , वह धर्म त्याग दें।
जिस गुरु में विद्या न हो , उसे त्याग दे।
हमेशा नाराज रहने वाली स्त्री को त्याग दें।  और
स्नेहविहीन भाई -बन्धुओं को त्याग देना चाहिये।

४.१५ विष है

अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम्।
दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरुणी विषम्।।४.१५।।

अनभ्यस्त शास्त्र विष के समान रहता है। 
अजीर्ण अवस्था में फिर से भोजन करना विष है।
दरिद्र के लिए सभा विष है।  और
बूढ़े पुरुष के लिए युवती स्त्री विष है।

४.१४ सूना रहता है

अपुत्रस्य गृहं शून्यं दिशः शून्यास्त्वबान्धवाः।
मूर्खस्य हृदयं शून्यं सर्वशून्या दरिद्रता।।४.१४।।

जिसके पुत्र नहीं है , उसका घर सूना है।
जिसका कोई भाई बन्धु नहीं होता , उसके लिए दिशाएँ शून्य रहती हैं।
मूर्ख मनुष्य का हृदय शून्य रहता है।  और
दरिद्र मनुष्य के लिए सारा संसार सूना रहता है।

४.१३ भार्या (स्त्री)

सा भार्या या शुचिर्दक्षा सा भार्या या पतिव्रता।
सा भार्या या पतिप्रीता सा भार्या सत्यवादिनी।।४.१३।।

वही भार्या (स्त्री) भार्या है , जो पवित्र , काम-काज करने में निपुण , पतिव्रता , पतिपरायण और सच्ची बात करने वाली हो।

४.१२ आदमियों के संग

एकाकिना तपो द्वाभ्यां पठनं गायनं त्रिभिः।
चतुर्भिर्गमनं क्षेत्रं पञ्चभिर्बहुभी रणम्।।४.१२।।

अकेले में तपस्या , दो आदमियों से पठन ,  तीन से गायन , चार आदमियों से रास्ता , पाँच आदमियों के संग से खेती का काम और ज्यादा -से  ज्यादा मनुष्यों के समुदाय द्वारा युद्ध सम्पन्न होता है।

४.११ केवल एक ही बार

सकृज्जल्पन्ति राजनः सकृज्जल्पन्ति पण्डिताः।
सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत्सकृत्।।४.११।।

राजा लोग केवल एक बार कहते हैं , उसी प्रकार पण्डित लोग भी केवल एक ही बार बोलते हैं , (आर्यधर्मावलम्बियों के यहाँ ) केवल एक ही बार कन्या दी जाती है , ये तीन बातें केवल एक ही बार होती हैं।

४.१० विश्राम स्थल

संसार तापदाग्धानां त्रयो विश्रान्तिहेतवः।
अपत्यं च कलत्रं च सतां सङ्गतिरेव च।।४.१०।।

सांसारिक ताप से जलते हुए लोगों के तीन ही विश्राम स्थल हैं।
पुत्र , स्त्री और सज्जनों का संग।

४.९ उस पुत्र से क्या लाभ

किं तया क्रियते धेन्वा या न दोग्ध्री न गर्भिणी।
कोऽर्थ्र: पुत्रेण जातेन यो न विद्वान् न भक्त्तिमान।।४.९।।  

ऐसी गाय से क्या लाभ जो न दूध देती हो और न गाभिन हो।  उसी प्रकार उस पुत्र से क्या लाभ जो न विद्वान् हो और न भक्त्तिमान् ही होवे।  

४.८ शरीर को भून डालते हैं

कुग्रामवासः कुलहीनसेवा कुभोजनं क्रोधमुखी च भार्या।
पुत्रश्च मूर्खा विधवाच कन्या विनाऽग्निमेते प्रदहन्ति कायम्।।४.८।।

खराब गाँव का निवास , नीच कुलवाले प्रभु की सेवा , ख़राब भोजन , कर्कशा स्त्री , मूर्ख पुत्र और विधवा पुत्री , ये छह बिना आग के ही प्राणी के शरीर को भून डालते हैं।  

४.७ मूर्ख पुत्र

मूर्खश्चिरायुर्जातोऽपि तस्माज्जातमृतोऽपरः।
मृतः स चाऽल्पदुःखाय यावज्जीवं जडो दहेत्।।४.७।।

मूर्ख पुत्र का चिरंजीवी होकर जीना अच्छा नहीं है।  बल्कि उससे वह पुत्र अच्छा है , जो पैदा होते ही मर जाय।  क्योंकि मरा पुत्र थोड़े दुःख का कारण होता है , पर जीवित मूर्ख पुत्र जन्मभर जलाता ही रहता है।  

४.६ एक गुणवान् पुत्र

एकोऽपि गुणवान् पुत्रो निर्गुणैश्च शतैर्वरः।
एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च ताराः सहस्त्रशः।।४.६।। 

एक गुणवान् पुत्र सैकड़ों गुणहीन पुत्रों से अच्छा है।  अकेला चन्द्रमा अन्धकार को दूर कर देता है , पर हजारों तारे मिलकर भी उसे नहीं दूर कर पाते।

४.५ विद्या

कामधेनुगुणा विद्या ह्यकाले फलदायिनी।
प्रवासे मातृसद्वशी विद्या गुप्तं धनं स्मृतम्।।४.५।।

विद्या में कामधेनु के समान गुण विद्यमान है।  यह असमय में भी फल देती है।  परदेश में तो यह माता की तरह पालन करती है।  इसलिए कहा जाता है कि विद्या गुप्त धन है।

४.४ अन्त समय के उपस्थित हो जाने पर

यावत्स्वस्थो ह्ययं देहो यावन्मृत्युश्च दूरतः।
तावदात्महितं कुर्यात् प्राणान्ते कीं करिष्यति।।४.४।।

जब तक कि शरीर स्वस्थ है और जब तक मृत्यु दूर है।  इसी बीच में आत्मा का कल्याण कर लो। अन्त समय के उपस्थित हो जाने पर कोई क्या करेगा ?

४.३ सज्जनों की संगती

दर्शनध्यानसंस्पर्शैर्मत्सी कुर्मी च पक्षिणी।
शिशुं पलायते नित्यं तथा सज्जनसङ्गतिः।।४.३।।

जैसे मछली दर्शन से , कछुई ध्यान से  और पक्षिणी स्पर्श से अपने बच्चे का पालन करती है , उसी तरह सज्जनों की संगती मनुष्य का पालन करती है।

४.२ सज्जनों के साथ

साधुभ्यस्ते निवर्तन्ते पुत्रमित्राणि बान्धवाः।
ये च तैः सह गन्तारस्तद्धर्मात् सुकृतं कुलम्।।४.२।।

संसार के अधिकांश पुत्र , मित्र  और बान्धव सज्जनों से पराङ्मुख ही रहते हैं , लेकिन जो पराङ्मुख न रह कर सज्जनों के साथ रहते हैं , उन्हीं के धर्म से वह कुल पुनीत हो जाता है।

४.१ पाँच बातें

आयुः कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च।
पाञ्चैतानि हि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः।।४.१।।

आयु , कर्म , धन , विद्या और मृत्यु  ये पाँच बातें तभी लिख दी जाती हैं , जब कि मनुष्य गर्भ में ही रहता है।