सोमवार, 21 मार्च 2016

११.१८ आत्म - कल्याण

देयं भोज्यधनं धनं सुकृतिभिर्नो संचंयस्तस्य वै
श्रीकर्णस्य बलेश्च विक्रमपतेरद्यापि कीर्तिः स्थिता।
अस्माकं मधुदानभोगरहितं नष्टं चिरात् सञ्चितं
निर्वाणादिति नष्टपादयुगलं घर्षन्त्यहो मक्षिकाः।।११.१८।।

आत्म - कल्याण की भावनावालों को चाहिये कि अपनी साधारण आवश्यकता से अधिक बचा हुआ अन्न , वस्त्र या धन दान कर दिया करे, जोड़ें नहीं।  दान की ही बदौलत कर्ण , बलि और महाराज विक्रमादित्य की कीर्ति आज भी विद्यमान है।  मधुमक्खियों को देखिये , वे यही सोचती हुई अपने पैर रगड़ती हैं कि 'हाय ! मैंने दान और भोग से रहित मधु को बहुत दिनों में इकठ्ठा किया और वह क्षण भर में दूसरा ले गया '।

११.१७ ब्राह्मण और चाण्डाल

देवद्रव्यं गुरूद्रव्यं परदाराभिमर्षणम्।
निर्वाहः सर्वभूतेषु विप्रश्चाण्डाल उच्यते।।११.१७।।

जो देवद्रव्य और गुरुद्रव्य अपहरण करता , परायी स्त्री के साथ दुराचार करता और लोगों की वृत्ति पर ही जो अपना निर्वाह करता है , ऐसे ब्राह्मण को चाण्डाल कहा जाता है।

११.१६ ब्राह्मण और म्लेच्छ

बापी - कूप - तडागानामारामसुरवेश्मनाम्।
उच्छेदने निराशङ्कः विप्रो म्लेच्छ उच्यते।।११.१६।।

जो बावली , कुआँ , तालाब , बगीचा और देवमन्दिर को नष्ट करने में नहीं हिचकता , ऐसे ब्राह्मण को ब्राह्मण न कहकर म्लेच्छ कहा जाता है।

११.१५ ब्राह्मण और मार्जार विप्र

परकार्यविहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः।
छली द्वेषी मृदुक्रुरो विप्रो मार्जार उच्यते।।११.१५।।

जो औरों का काम बिगाड़ता , पाखण्डपरायण रहता , अपना मतलब साधने में तत्पर रहता , छल आदि कर्म करता , ऊपर से मीठा किन्तु हृदय से क्रूर रहता ऐसे ब्राह्मण को मार्जार विप्र कहते हैं।

११.१४ ब्राह्मण और शूद्र ब्राह्मण

लाक्षादितैलनीलानां कौसुम्भमधुसर्पिषाम्।
विक्रेता मद्यमांसानां स विप्रः शूद्र उच्यते।।११.१४।।

जो लाख , तेल , नील , कूसुम , शहद , घी , मदिरा और मांस बेचता है , उस ब्राह्मण को शूद्र ब्राह्मण कहते हैं।

११.१३ ब्राह्मण और विप्र वैश्य

लौकिके कर्मणि रतः पशूनां परिपालकः।
वाणिज्यकृषिकर्ता यः स विप्रो वैश्य उच्यते।।११.१३।।

जो ब्राह्मण सांसारिक धन्धों में लगा रहता और पशु पालन करता , वाणिज्य व्यवसाय करता या खेती ही करता है वह विप्र वैश्य कहलाता है।

११.१२ ब्राह्मण और द्विज

एकाहारेण सन्तुष्टः षट्कर्मनिरतः सदा।
ऋतुकालेऽभिगामी च स विप्रो द्विज उच्यते।।११.१२।।

जो ब्राह्मण केवल एक बार के भोजन से सन्तुष्ट रहता और यज्ञ , अध्ययन , दानादि षट्कर्मों में सदा लीन रहता और केवल ऋतुकाल में स्त्रीगमन करता है , उसे द्विज कहना चाहिए।

११.११ ब्राह्मण और ऋषि

अकृष्टफलमूलानि वनवासरतिः सदा।
कुरुतेऽहरहः श्राद्धमृषिर्विप्रः स उच्यते।।११.११।।

जो ब्राह्मण बिना जोते -बोये फल पर जीवन बिताता , हमेशा वन में रहना पसन्द करता और प्रतिदिन श्राद्ध करता है , उस विप्र को ऋषि कहना चाहिए।

११.१० विद्यार्थी इन आठ कामों को त्याग दे

कामं क्रोधं तथा लोभं प्यादु श्रृंङ्गारकौतुकम्।
अतिनिद्राऽतिसेवा च विद्यार्थी ह्यष्टवर्जयेत्।।११.१०।।

काम , क्रोध , लोभ , स्वाद , श्रिङ्गार , खेल - तमाशे, अधिक नींद और किसी की अधिक सेवा , विद्यार्थी इन आठ कामों को त्याग दे।  क्योंकि ये आठ विद्याध्ययन में बाधक हैं।  

११.९ स्वर्ग में निवास

ये तु संवत्सर पूर्णं नित्यं मौनेन भुञ्जते।
युगकोटिसहस्त्रं तु स्वर्गलोके महीयते।।११.९।।

जो लोग केवल एक वर्ष तक मौन रहकर भोजन करते हैं , वे दश हजार वर्ष तक स्वर्गवासियों से सम्मानित होकर स्वर्ग में निवास करते हैं।

११.८ गुणों को न जानना

न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्षं स तं तदा निन्दति नाऽत्र चित्रम्।
यथा किराती कुरिकुम्भलब्धां मुक्त्तां परित्यज्य बिभर्ति गुञ्जाम् ।।११.८।।

जो जिसके गुणों को नहीं जानता , वह उसकी निन्दा करता रहता है , तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।  देखों न , जंगल की रहनेवाली भिलनी हाथी के मस्तक की मुक्त्ता को छोड़कर घुँघची ही पहनती है।


११.७ हृदय में पाप

अन्तर्गतमलो दृष्टः तीर्थस्नानशतैरपि।
न शुद्ध्यति तथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत्।।११.७।।

जिसके हृदय में पाप घर कर चुका है , वह सैकड़ों बार तीर्थस्नान करके भी शुद्ध नहीं हो सकता।  जैसे कि मदिरा का पात्र अग्नि में झुलसने पर भी पवित्र नहीं होता।

११.६ दुर्जन व्यक्त्ति को उपदेश

 न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः।
आमूलसिक्त्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति।।११.६।।

दुर्जन व्यक्त्ति को चाहे कितना भी उपदेश क्यों न दिया जाय वह अच्छी दशा को नहीं पहुँच सकता।  नीम के वृक्ष को चाहे जड़ से लेकर सिर तक घी और दूध से ही क्यों न सींचा जाय फिर भी उसमें मीठापन नहीं आ सकता।

११.५ विद्या, दया, सच्चाई और पवित्रता

गृहासक्त्तस्य नो विद्या न दया मांसभोजिनः।
द्रव्यलुब्धस्य नो सत्यं स्त्रैणस्य न पवित्रता।।११.५।।

गृहस्थी के जंजाल  में फँसे व्यक्त्ति को विद्या नहीं आती , मांसभोजी के हृदय में दया नहीं आती , लोभी के पास सच्चाई नहीं आती और कामी पुरुष के पास पवित्रता नहीं आती।

११.४ कलि

कलौ दश सहस्त्राणि हरिस्त्याजति मेदिनीम्।
तदर्द्ध जाह्नवीतोयं तदर्द्धं ग्रामदेवताः।।११.४।।

कलि के दस हज़ार वर्ष बीतने पर विष्णु भगवान् पृथ्वी छोड़ देते हैं। पाँच हज़ार वर्ष बाद गंगा का जल पृथ्वी को छोड़ देता है और उसके आधे यानी ढाई हज़ार वर्ष में ग्रामदेवता ग्राम छोड़कर चले जाते हैं।

११.३ जिसमें तेज है , वही बलवान् है

हस्ती स्थूलतनुः स चांकुशवशः किं हस्तिमात्रोंऽकुशः
दीपे प्रज्वलिते प्रणश्यति तमः किं दीपमात्रं तमः।
वज्रेणापि हताः पतिन्ति गिरयः किं वज्रमात्रा नगाः
तेजे यस्य विराजते स बलवान्स्थूलेषु कः  प्रत्ययः।।११.३।।  

हाथी मोटा - ताजा होता है , किन्तु अंकुश के वश में रहता है , तो क्या अंकुश हाथी के बराबर है ?
दीपक के जल जानेपर क्या अन्धकार दूर हो जाता है , तो क्या अन्धकार के बराबर दीपक है ?
इन्द्र के वज्रप्रहार से पहाड़ गिर जाते हैं , तो क्या वज्र उन पर्वतों के बराबर है ?
इसका मतलब यह निकला कि जिसमें तेज है , वही बलवान् है , यों मोटा - ताजा होने से कुछ नहीं होता।  

११.२ अधर्म

आत्मवर्गं परित्यज्य परवर्गं समाश्रयेत्।
स्वयमेव लयं याति यथा राज्यमधर्मतः।।११.२।।

जो व्यक्त्ति अपना वर्ग छोड़कर पराये वर्ग में जाकर मिल जाता है वह अपने - आप नष्ट हो जाता है।  जैसे अधर्म से राजा लोग नष्ट हो जाते हैं।

११.१ स्वाभाविक सिद्ध चार गुण

दातृत्वं प्रियवकृत्तत्वं धीरत्वमुचितज्ञता।
अभ्यासेन न लभ्यन्ते चत्वारः सहजाः गुणाः।।११.१।।

दानशक्त्ति , मीठी बात करना , धैर्य धारण करना , समय पर उचित अनुचित का निर्णय करना।  ये चार गुण स्वाभाविक सिद्ध हैं।  सीखने से नहीं आते।

१०.२० शाक, दूध, घी और मांस

शाकेन रोगा वर्द्धन्ते पयसो वर्द्धते तनुः।
घृतेन वर्द्धते वीर्यं मांसान्मांसं प्रवर्द्धते।।१०.२०।।

शाक से रोग , दूध से शरीर , घी से वीर्य और मांस से मांस की वृद्धि होती है।

१०.१९ पिसान, दूध, मांस और घी

अन्नाद्दशगुणं पिष्टं पिष्टाद्दशगुणं पयः।
पयसोऽष्टगुणं मांसं मांसाद्दशगुणं घृतम्।।१०.१९।।

खड़े अन्न की अपेक्षा दसगुना बल रहता है पिसान में।  पिसान से दसगुना बल रहता है दूध में।  दूध से अठगुना बल रहता है मांस में और मांस से भी दस गुना बल घी में।

१०.१८ भाषान्तर का लोभ

गीर्वाणवाणीषु विशिष्टबुद्धिस्तथापि भाषान्तरलोलुपोऽहम्।
यथा सुधायाममरेषु सत्यां स्वर्गाङ्गनानामधरासवे रुचिः ।।१०.१८।।

यद्यपि मैं देववाणी में विशेष योग्यता रखता हूँ , फिर भाषान्तर का लोभ है ही।  जैसे स्वर्ग में अमृत जैसी उत्तम वस्तु विद्यमान है फिर भी देवताओं को देवांगनाओं के अधरामृत पान करने की रुचि रहती ही है।

१०.१७ भगवान् विश्वम्भर

का चिन्ता मम जीवने यदि हरिर्विश्वम्भरो गीयते
नो चेदर्भक - जीवनाय जननीस्तन्यं कथं निःसरेत्।
इत्यालोच्य मुहुर्मुहुर्यदुपते ! लक्ष्मीपते ! केवलं
त्व्रत्पा दाम्बुजसेवनेन सततं कालो मया नीयते।।१०.१७।।

यदि भगवान् विश्वम्भर कहलाते हैं तो हमें अपने जीवन सम्बन्धी झंझटों (अन्न-वस्त्र आदि) की क्या चिन्ता ? यदि वे विश्वम्भर न होते तो जन्म के पहले ही बच्चे को पीने के लिए माता के स्तन में दूध कैसे उतर आता।  बार-बार इस बात को सोचकर हे यदुपते! हे लक्ष्मीपते ! मैं केवल आप के चरण -कमलों की सेवा करके अपना समय बिताता हूँ।

१०.१६ बुद्धि और बल

बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम्।
वने सिंहो मन्दोन्मत्तः शशकेन निपातितः।।१०.१६।।

जिसके पास बुद्धि है उसी के पास बल है , जिसके पास बुद्धि ही नहीं उसके बल कहाँ से होगा।  एक जंगल में एक बुद्धिमान् खरगोश ने एक मतवाले हाथी को मार डाला था। 

१०.१५ बसेरा

एकवृक्षे समारूढा नानावर्णा विहङ्गमाः।
प्रभाते दिक्षु दशसु का तत्र परिवेदना।।१०.१५।।

विविध वर्ण (रंग) के पक्षी एक ही वृक्ष पर रातभर बसेरा करते हैं और सबेरे दशों दिशाओं में उड़ जाते हैं।  उसी दशा मनुष्यों की भी है , फिर इसके लिये सन्ताप करने की क्या जरूरत है ?

१०.१४ भक्त्त, विष्णु भगवान्, विष्णु के भक्त्त और तीनों भुवन

माता च कमला देवी पिता देवो जनार्दनः।
बान्धवा विष्णुभक्त्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्।।१०.१४।।

भक्त्त मनुष्य की माता हैं लक्ष्मीजी , विष्णु भगवान् पिता हैं , विष्णु के भक्त्त भाई-बन्धु हैं और तीनों भुवन उसका देश है।

१०.१३ ब्राह्मण वृक्ष

 विप्रो वृक्षस्तस्य मुलं च सन्ध्या वेदाः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम्।
तस्मात् मुलं यत्नतो रक्षणीयम् छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्।।१०.१३।।

ब्राह्मण वृक्ष के समान है , उसकी जड़ है सन्ध्या , वेद है शाखा और कर्म पत्ते हैं।  इसलिए मूल (सन्धा) की यत्न पूर्वक रक्षा करो।  क्योंकि जब जड़ ही कट जायेगी तो न शाखा रहेगी और न पत्र ही रहेगा।

१०.१२ अपनी बिरादरी

 वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं द्रुमालयं पक्वफलाम्बुसेवनम्।
तृणेषु शय्या शतजिर्णबल्कलं न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम्।।१०.१२।।

बाघ और बड़े - बड़े हाथियों के झुण्ड जिस वन में रहते हों उसमें रहना पड़े , निवास करके पके फल तथा जल पर जीवन -यापन करना पड़ जाय , घास - फूस पर सोना पड़े और सैकड़ों जगह फटे बल्कल वस्त्र पहनना पड़े तो अच्छा पर अपनी बिरादरी में दरिद्र होकर जीवन बिताना अच्छा नहीं है।

१०.११ ब्राह्मण से द्वेष

आत्पद्वेषाद् भवेन्मृत्युः परद्वेषाद् धनक्षयः।
राजद्वेषाद् भवेन्नाशो ब्रह्मद्वेषात कुलक्षयः।।१०.११।।

बड़े - बूढ़ों से द्वेष करने पर मृत्यु होती है।  शत्रु से द्वेष करने पर धन का नाश होता है।  राजा से द्वेष करने पर सर्वनाश हो जाता है और ब्राह्मण से द्वेष करने पर कुल का ही क्षय हो जाता है।

१०.१० दुर्जन को सज्जन

दुर्जनं सज्जनं कर्तुमुपायो न हि भूलते।
अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत्।।१०.१०।।

इस पृथ्वीतल में दुर्जन को सज्जन बनाने का कोई यत्न है ही नहीं।  अपान प्रदेश को चाहे सैकड़ों बार क्यों न धोया जाय फिर भी वह श्रेष्ठ इन्द्रिय नहीं हो सकता।

१०.९ बुद्धि

यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति।।१०.९।।

जिसके पास स्वयं बुद्धि नहीं है , उसे क्या शास्त्र सिखा देगा ?
जिसकी दोनों आँखें फूट गई हों , क्या उसे शीशा दिखा देगा ?

१०.८ अन्तरात्मा में तत्व

अन्तःसारविहीनानामुपदेशो न जायते।
मलयाचलसंसर्गान्न वेणुश्चन्दनायते।।१०.८।।

जिनकी अन्तरात्मा में कुछ तत्व नहीं होता ऐसे मनुष्यों को किसी का उपदेश कुछ भी असर नहीं करता।  मलयाचल के संसर्ग से और वृक्ष चन्दन हो जाते हैं , पर बाँस चन्दन नहीं होता।

१०.७ पृथ्वी के बोझ

येषां न विद्या न तपो न दानं न चाऽपि शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्तिं।।१०.७।।

जिस मनुष्य में न विद्या है , न  तप  है , न शील है और न गुण है ऐसे मनुष्य पृथ्वी के बोझ रूप होकर मनुष्य रूप में पशु सदृश जीवन यापन करते हैं।  

१०.६ शत्रु

लुब्धानां याचकः शत्रुः मुर्खाणां बोधको रिपुः।
जारस्त्रीणां पतिः शत्रुश्चौराणां चन्द्रमा रिपुः।।१०.६।।

लोभी का शत्रु है याचक , मूर्ख का शत्रु है उपदेश देने वाला , कुलटा स्त्री का शत्रु है उसका पति और चोरों का शत्रु चन्द्रमा है।

१०.५ विधाता

रंङकं करोति राजानं राजानं रंङकमेव च।
धनिनं निर्धनं चैव निर्धनं धनिनं विधिः।।१०.५।।

विधाता कंङगाल को राजा , राजा को कंङगाल , धनी को निर्धन और निर्धन को धनी बनाता ही रहता है।

१०.४ कवि, स्त्रियाँ, शराबी और कौवे

कवयः किं न पश्यन्ति किं न कुर्वन्ति योषितः।
मद्यपा किं न जल्पन्ति किं न खादन्ति वायसाः।।१०.४।।

कवि क्या वस्तु नहीं देख पाते ? स्त्रियाँ क्या नहीं कर सकतीं , शराबी क्या नहीं बक जाते ? और कौवे क्या नहीं खा जाते ?

१०.३ सुखार्थी को विद्या और विद्यार्थी को सुख

सुखार्थी चेत् त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी चेत् त्यजेत्सुखम्।
सुखार्थिनः कुतो विद्या सुखं विद्यार्थिनः कुतः ?।।१०.३।।

जो मनुष्य विषय सुख चाहता हो , वह विद्या के पास न जाय।  जो विद्या का इच्छुक हो , वह विषय सुख छोड़े।  सुखार्थी को विद्या और विद्यार्थी को सुख कहाँ मिल सकता है ?

१०.२ बात और मन

दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम्।
शास्त्रपूतं वदेद् वाक्यं मनः पूतं समाचरेत्।।१०.२।।

आँख से अच्छी तरह देख - भाल कर पैर धरें , कपड़े से छानकर जल पियें , शास्त्रसम्मत बात कहें और मन को हमेशा पवित्र रखें।

१०.१ विद्यारूपी रत्न

धनहीनो न हीनश्च धनिकः स सुनिश्चयः।
विद्यारत्नेन हीनो यः स हीनः सर्ववस्तुषु।।१०.१।।

धनहीन मनुष्य हीन नहीं कहा जा सकता, वही वास्तव में धनी है।  किन्तु जो मनुष्य विद्यारूपी रत्न से हीन है , वह सभी वस्तुओं से हीन है।