सोमवार, 21 मार्च 2016

११.७ हृदय में पाप

अन्तर्गतमलो दृष्टः तीर्थस्नानशतैरपि।
न शुद्ध्यति तथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत्।।११.७।।

जिसके हृदय में पाप घर कर चुका है , वह सैकड़ों बार तीर्थस्नान करके भी शुद्ध नहीं हो सकता।  जैसे कि मदिरा का पात्र अग्नि में झुलसने पर भी पवित्र नहीं होता।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें