शनिवार, 26 मार्च 2016

१५.५ धन ही मनुष्य का बन्धु

त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं दाराश्च सुहृज्जनाश्च।
तं चाऽर्थवन्त पुनराश्रयन्तं ह्यर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धुः।।१५.५।।

निर्धन मित्र को मित्र , स्त्री , सेवक और सगे - सम्बन्धी छोड़ देते हैं और वही जब फिर धनी हो जाता है तो वह लोग उसके साथ हो लेते हैं।  मतलब यह कि संसार में धन ही मनुष्य का बन्धु है।

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