रविवार, 27 मार्च 2016

१६.१२ धन

किं तया क्रियते लक्ष्म्या या बधूरिव केवला।
या तु वेश्येव सामान्या पथिकैरपि भुज्यते।।१२।।

उस धन से क्या हो सकता है जो बहू की तरह घर के भीतर बन्द रहे अथवा उस धन से भी कुछ नहीं हो सकता जो लावारिसी तौर से वेश्या की तरह पड़ा हो और रास्ते चलने वाले ऐरे - गैरे भी उसे भोगें।

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