शनिवार, 19 मार्च 2016

७.१३ मनुष्य को हंस के समान न होना चाहिये

यत्रोदकस्तत्र वसन्ती हंसा स्तथैव शुष्कं परिवर्जयन्ति।
न हंसतुल्येन नरेण भाव्यं पुनस्त्यजन्तः पुनराश्रयन्तः।।७.१३।।

जहाँ जल रहता है वहाँ ही हंस बसते हैं।  वैसे ही सूखे  सरोवर को छोड़ते हैं और बार बार आश्रय कर लेते हैं।  अतः मनुष्य को हंस के समान न होना चाहिये।

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